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श्रद्धा

shraddha

निकोला वाप्त्सारोव

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और अधिकनिकोला वाप्त्सारोव

    साँस लेता

    काम करता

    ज़िंदा

    और लिखता हुआ कविता

    (दे रहा हूँ इसे अपना श्रेष्ठतम)

    मैं यहाँ हूँ।

    ज़िंदगी और मैं

    देखते हैं एक-दूसरे को

    आँखें तरेरकर

    और अपनी पूरी शक्ति से

    इससे करता हूँ संघर्ष मैं।

    मेरी और ज़िंदगी की अनबन है

    इससे मत निकालो निष्कर्ष

    कि मैं करता हूँ इसकी उपेक्षा

    नहीं

    बात है विपरीत इसके

    ज़िंदगी के क्रूर फ़ौलादी शिकंजे में

    अगर मैं हो गया ख़त्म

    तब भी इसे चाहूँगा

    तब भी इसे चाहूँगा

    मान लो वे मेरी गर्दन में कस दें

    रस्सी का फंदा

    और मुझसे पूछें :

    'क्या ज़िंदा रहना चाहोगे तुम

    एक और घंटा?'

    मैं फ़ौरन चिल्लाऊँगा :

    'खोलो,

    खोलो!

    आओ, जल्दी से खोलो

    यह रस्सी, शैतानो!'

    ज़िंदगी की जगह कुछ और नहीं है

    मैं साहस नहीं करूँगा

    मैं उड़ जाऊँगा किसी आदर्श यान से आकाश में

    चढ़ जाऊँगा किसी गरजते रॉकेट पर

    अकेला अंतरिक्ष में खोजता रहूँगा

    दूरांत ग्रहों को

    इसके बावजूद मैं करूँगा

    उल्लास और रोमांच का अनुभव

    नीले आकाश को देखते हुए

    इसके बावजूद मैं करूँगा

    उल्लास और रोमांच का अनुभव

    कि मैं ज़िंदा हूँ

    और ज़िंदा रहूँगा।

    लेकिन मान लो

    तुमने मेरी इस आस्था से

    यदि एक कण भी लिया

    तो मैं पागल हो जाऊँगा क्रोध से

    पीड़ा से

    जैसे कि एक मर्माहत तेंदुआ।

    तब मुझमें क्या रह जाएगा

    मैं हो जाऊँगा विक्षिप्त

    इस चोरी के बाद

    यदि साफ़ और सीधे कहूँ

    तो मैं कुछ नहीं रहूँगा।

    तुम चाह सकते हो

    मिटाना मेरी आस्था

    शुभ दिनों में

    मेरी आस्था

    कि आने वाले कल में

    जीवन अधिक शानदार होगा

    जीवन अधिक समझदार होगा।

    प्रार्थना करो,

    तुम इसे कैसे तोड़ोगे?

    गोलियों से?

    नहीं! ये बेकार हैं

    बंद करो, ये इस लायक़ नहीं हैं।

    मेरे सबल वक्ष में

    मेरी आस्था पर कठोर कवच है

    और वे गोलियाँ अभी नहीं हैं कहीं

    जो मेरी आस्था को तोड़ सकें।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बल्गारियाई कविताएँ (पृष्ठ 62)
    • संपादक : रमेश कौशिक
    • रचनाकार : निकोला वाप्त्सारोव
    • प्रकाशन : पराग प्रकाशन
    • संस्करण : 1985

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