शब्दों की सीमा के भीतर

shabdon ki sima ke bhitar

आईदान सिंह भाटी

आईदान सिंह भाटी

शब्दों की सीमा के भीतर

आईदान सिंह भाटी

और अधिकआईदान सिंह भाटी

    खरगोश नहीं दौड़ सकता / अथक-लंबी दौड़।

    हरिण के रुपहले सींग,

    अटक ही जाते हैं झाड़ियों में।

    राह-दर-मंज़िल / रेत के समंदर में दौड़ता,

    कब तक प्यासा मरता रहेगा ऊँट।

    एक दिन आख़िर / मुसाफ़िरी से लौटकर

    आना ही पड़ता है यात्री को / घर के आँगन के अधबीच।

    कई बसाते हैं / चाँद-तारों पर बस्तियाँ।

    और कई अभी तक तान रहे हैं,

    धरती और आकाश के बीचोबीच,

    सहोदरों से सर्दी-धूप / वर्षा बग़लगीर।

    आख़िरकार—/ शब्द कब तक बरतेंगे

    सब के साथ समभाव / स्नेहिल बरताव?

    सारे ही शब्दों की सीमा के भीतर

    पर्वत-पेड़/ नदियाँ-निर्झर

    चाँदनी रात और चमकती थार की बालू।

    भाद्रपद की नई-नवेली कजली तीज।

    दिपदिपाता प्रभात और

    लेकिन / रात के पिछले पहर में

    आत्मघात करती है जब नई दुल्हन,

    मारी-जाती चीख़ तक नहीं पाती

    कोई कन्या नवजात।

    घूरे पर बिसूरता है मनुष्य का अंतःकरण।

    उस वक्त मुझे याद आता है—

    कँपकँपी छूटा, दौड़ता / थका हुआ ख़रगोश

    झाड़ियों में सींग उलझा, / रूप-गर्वीला

    तड़पता हरिण / और बालू रेत में अस्त-व्यस्त

    प्यास से बेहाल दौड़ता ऊँट।

    मैं सोचता हूँ इस तरह बिसूरता

    अपनी सीमा में बँधे / कदाचित आप सभी,

    कभी इस तरह सोचते भी होंगे?

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक भारतीय कविता संचयन राजस्थानी (1950-2010) (पृष्ठ 108)
    • रचनाकार : आईदान सिंह भाटी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2012

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