जाहि देशमे शब्द अनादृत
तकर सूर्यकेर आयु क्षीण
तकर पृथ्वी बन्ध्या बनतीह
तकर नदी निजल होयतीह
तकर वनस्पति, वृक्ष-समाज
सबटा हएत उजरल पतझार
मेघ छूअत मरल पसरल, पाथर-पहाड़
बौक मनुष्य, विकल शिशु बाँझ गाय
स्त्रीक समाज।
फूल फ’ड़, वायु विहीन चारू दिशा
करत दुर्भिक्षी हाहाकार
एक-एक पातक छाहरि लेल
एक-एक रेख प्रकाशक वास्ते
प्राणक बस्ती छटपट-छटपट
होयत बिनु किताब लिखनहि, बिनु गौनहि गीत,
बिना किछु देने अरिनन वा
भावी जीवनक संकेते छोड़नहि,
अदृश्य, लुप्त, सुप्त
समयक रहस्य ओढ़ि लेत
जाहि देशमे रहतै
शब्द अनादृत।
- पुस्तक : आरम्भ (पृष्ठ 14)
- संपादक : राज मोहन झा
- रचनाकार : गंगेश गुंजन
- प्रकाशन : आरम्भ
- संस्करण : 1997
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