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सत्तर पार करना

sattar paar karna

कौशल किशोर

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कौशल किशोर

सत्तर पार करना

कौशल किशोर

और अधिककौशल किशोर

    मेरा सत्तर पार करना

    बचपन में तैरकर नदी पार करने जैसा है

    शरीर कई व्याधियों से घिरा है

    पर दिल अब भी जवान है

    उसी की तरह मचलता है, शरारतें करता है

    मैं बचा हूँ

    या लंबी जीवन यात्रा के बाद भी

    बचा रह गया हूँ

    तो इसलिए कि संकट से दोस्ती है

    चुनौतियाँ संगदिल हैं

    खतरों से खेलना आदत है

    अम्मा बताती है कि जब नन्हा-मुन्ना था

    ऐसा बीमार पड़ा कि आशा पर भी ग्रहण लगा

    ओझा-वैद्य सबने जवाब दे दिया

    रात भारी थी, कहा गया कि नहीं कटेगी

    पर सूरज निकला, मैं बच गया

    इसी तरह बचता रहा हूँ

    मौत पास से गुज़रती रही है

    उससे पंजा लड़ाने का अपना सुख है

    यह शह और मात का खेल है

    मैं 18 मार्च 1974 को क्या भूल सकता हूँ?

    वह दिन तो इतिहास में दर्ज़ है

    यह हमारे लोकतांत्रिक देश की सरकार थी

    जिसने छात्रों का स्वागत गोलियों से किया

    पटना की सड़कें लहूलुहान हो चुकी थीं

    एक गोली तो मुझे स्पर्श करके निकल गई

    पैर पर उसके निशान आज भी मौजूद है

    बाबरी मस्जिद को गिराया गया

    यह उस संस्कृति पर हमला था

    जिसे रचने में हमारे पुरखों का रक्त बहा था

    ऐसे अनेक ज़ख़्म आज भी मेरे सीने में है

    जो रह-रह कर रिसते हैं

    अनेक लड़ाइयाँ जो पिछली सदी में लड़ी गईं

    वे अब भी ज़ारी हैं

    मैं एक सिपाही की तरह उनमें शामिल रहा हूँ

    केरोना से जंग में फेफड़ा छलनी हुआ

    इन सबसे लड़ते-भिड़ते सत्तर पार पहुँचा हूँ

    यह ज़िंदगी का सबसे ख़राब दौर है

    और सबसे कठिन लड़ाई है

    याद आता है शमशेर का कहा—

    ‘अब जितने दिन भी जीना होना है

    उनकी चोटें होनी है अपना सीना होना है।’

    स्रोत :
    • रचनाकार : कौशल किशोर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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