सर सैयद का बुढ़ापा

sar saiyad ka buDhapa

बालमुकुंद गुप्त

बालमुकुंद गुप्त

सर सैयद का बुढ़ापा

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

     

    बहुत जी चुके बूढ़े बाबा चलिए मौत बुलाती है।
    छोड़ सोच मौत से मिलो जो सबका सोच मिटाती है।
    गोर भी कहती है रहते हमको किस लिए भुलाए हो।
    यों जीने पर मरते हो क्या लोहे का सिर लाए हो।

    बहुत नाम पाया बाबा जी अब तुम इतना काम करो।
    जो कुछ नाम कमा डाला है उसको मत बदनाम करो।
    गढ़ा फाड़ के मुँह कहता है अंत मुझी में आना है।
    अच्छी भाँति सोच लो जी में पिछला यही ठिकाना है।

    स्वर्ग नर्क है बात दूसरी मानो चाहे मत मानो।
    पर तुम मेरे मुँह में होंगे इसको निश्चय ही जानो।
    उस दुनिया में कोई नहिं कह सकता क्या लेखा होगा।
    तो भी बाप और दादों को गड़ते तो देखा होगा।

    इससे जी में निश्चय कर लो मरना है फिर गड़ना है।
    मट्टी में मिल जाना है और गोर में पड़कर सड़ना है।
    सभी हड्डियाँ गलें सड़ेंगी कोई न पहचानेगा फिर।
    यह खोपड़ी किसी दुखिया की पड़ी है वा है सरका सिर।

    दिल में जामा मस्जिद के पास एक छोटा-सा घर था।
    बहुत वर्ष नहिं हुए कोई एक रहता उसके भीतर था।
    वहाँ पास के रहने वालों से जो पता लगाओगे।
    चिह्न अब तलक भी कुछ उस टूटे से घर का पाओगे।

    पास मोहल्ले की मस्जिद में करता रहता वह उपदेश।
    काल बिताता पढ़ाके लड़के साधारण रखता था वेश।
    एक बार ही समय ने उसके एक ऐसा पल्टा खाया।
    छुड़वाके मस्जिद के टुकड़े ऊँचे पद पर पहुँचाया।

    द्रव्य पाय के अपने मन में अब वह इतना फूल गया।
    बड़ा अचंभा है दो दिन में सब पिछली गति भूल गया।
    कीड़ों ने “असबाबे बग़ावत”1 को अब तक नहिं खाया है।
    उल्था करने वाला भी भूतल में नहीं समाया है।
     
    बोलो तो बुड्ढे बाबा क्या उस सनेह का हुआ निचोड़।
    भूल गए पंजाब-यात्रा में तुम आँख रहे थे फोड़2?
    हिंदू और मुसलमानों को एक ही सा बतलाते थे।
    आँख फोड़ने को अपने झटपट प्रस्तुत हो जाते थे।

    क्या कहते हैं लोग तुम्हें कुछ बात का उनके ध्यान करो।
    क्या-क्या चर्चाएँ फैली हैं ज़रा उधर भी कान करो।
    हमने माना द्रव्य कमा कर घर को अपने भर दोगे।
    पर यह तो बतलाओ अंत:करण को क्या उत्तर दोगे?

    हमने माना किसी व्यक्ति को ध्यान न हो परमारथ का।
    पर है यह क्या बात कि चेला ही बन जावे स्वराथ का?
    हे बाबा महमूद गजनवी लूट-लूट धन जोड़ गया।
    अंतकाल उसका जब आया रोते-रोते छोड़ गया।

    दीन हीन दुखिया लोगों को मार-मार उसने लूटा।
    चलती बेर देख धन, अपना मार दुहत्थड़ सिर काटा।
    कुछ भी ले जा सका संग नहिं मलता ख़ाली हाथ गया।
    सदा-सदा को कलंक और पापों का गट्ठड़ साथ गया।

    करके द्रोह दीन दुखिया लोगों से क्या पद पाओगे।
    अपना नाम बड़ा कर लोगे देश का नाम मिटाओगे।
    कारूँ और शद्दाद के झगड़ें अब इस समय कहानी हैं।
    पर कलंक औ अपयश की तो चिरस्थायिनी बानी हैं।

    वह दिन गए वक्तृता देते आँसू टप टप गिरते थे।
    नैन तुम्हारे दीन हीन लोगों से कभी न फिरते थे।
    अहा! चाटुकारी को खोके चाटुकार तुम बनते हो।
    अपने हाथ स्वतंत्रालय को रचके आप ही खनते हो!

    स्मरण हमें इस अवसर पै सादी का कहना आता है।
    ज्यों-ज्यों नर बूढ़ा होता है लोभ अधिक कहना हो जाता है।
    हे धनियो! क्या दीनजनों की नहिं सुनते हो हाहाकार?
    जिसका मरे पड़ोसी भूखा उसके भोजन को धिक्कार!

    भूखों की सुध उसके जी में कहिए किस पथ से आवे।
    जिसका पेट मिष्ट भोजन से ठीक नाक तक भर जावे।
    हे हे पेट भरो! यूसुफ़3 भूखे अकाल में रहते थे।
    जब कोई इसका हेतु पूछता था तो उससे कहते थे।

    भूखे पेट न सोए कोई इस डर से मैं डरता हूँ।
    भूल न जाऊँ भूखों को इसलिए पेट नहिं भरता हूँ।
    यद्यपि नाम तुम्हारा पृथ्वी में प्रसिद्ध नहिं थोड़ा है।
    खाने को कलिया पुलाव चढ़ने को गाड़ी घोड़ा है।

    साँझ सबेरे उन पर बैठ हवा खाने को जाते हो।
    इधर-उधर सड़कों में फिरकर उल्टे घर को आते हो।
    नंगे भूखे तुम को सच है कभी नहीं रहना पड़ता।
    पैदल चलने से पाँवों में फूल तलक भी नहिं गड़ता।

    फिर भी क्या नंगे भूखों पर दृष्टि नहीं पड़ती होगी।
    सड़क कूटने वालों से तो आँख कभी लड़ती होगी?
    कभी ध्यान में उन दुखियों की दीन दशा भी लाते हो।
    जिनको पहरों गाड़ी घोड़ों के पीछे दौड़ाते हो।

    वह प्रचंड ग्रीष्म की ज्वाला औ उनके वे नग्न शरीर।
    बंद सेज गाड़ी पर चलने वाला क्या जाने बेपीर?
    जलती हुई सड़क पर नंगे पैरों दौड़े जाते हैं।
    कुछ बिलंब हो जाता है तो गाली हंटर खाते हैं।

    लू के मारे पंखे वाले की गति वह क्योंकर जाने।
    शीतल खस की टट्टी में जो लेटा हो चादर ताने।
    बाहर बैठा वह बेचारा तत्ते झोंके खाता है।
    सिर पर धूल गिरा करती है बैठा डोर हिलाता है।

    बहुत परिश्रम करते-करते ऊँघ कभी जो जाता है।
    बिना बूझ लातें गाली उसके बदले में पाता है।
    हा ईश्वर! हा हा ईश्वर! तेरी माया है अपरंपार।
    क्या जाने क्यों दुखियों ही को दु:ख देता है बारंबार।

    गाली लातें खाते-खाते अब तो गोली खाते हैं।
    किंचित मात्र ऊँघ जाने में जी से मारे जाते हैं।
    हमने माना गोरा रंग आजकल तुमको प्यारा है।
    पर हे श्याम! सुना है काला भी तो रंग तुम्हारा है।

    एक काला इसलिए गया पिंडी में गोली से मारा।
    पंखा करते एक गोरे को ऊँघ गया था बेचारा।
    इन कठोर अन्यायों को भी जो कोई बतलावे न्याय।
    उसके हृदय और मस्तिष्क दोनों की फूट गई है हाय!

    यह मोटी-मोटी बातें भी क्या नहीं देती दिखलाई?
    आँखों आगे खड़ा न सूझे हा! ऐसी चर्बी छाई।
    बतलाओ क्या पेट का भरना मनुष्यत्व कहलाता है।
    पेट पूछिए तो कूकर सूकर का भी भर जाता है।

    तुम जो अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषण तन पर धारे हो।
    औरों को दु:ख देते नित प्रति अपने सुख के मारे हो।
    भाई-बंधु तुम्हारे सारे दु:ख में डूब रहते हैं। 
    तुम स्वारथ परताप में डूबे क्या सुख इसको कहते हैं?

    है सय्यद बाबा दो दिन से तुम धन पा के धनी हुए।
    बहुतेरे निर्धन पृथिवी पर धनी हुए मिट गए मुए।
    अच्छी भाँति देख लो धन सब खाने में नहीं आता है।
    मरने पीछे बाँध के गठड़ी क्या कोई ले जाता है।

    लाख जोड़ के रक्खो वा एक आना नित्य कमाओगे।
    आध सेर अन्न से अधिक पेट के लिए नहीं पाओगे।
    फिर इस सारी हाहू कृतघ्नता का क्या होगा परिणाम?
    मर जाने पर धन वैभव पद सब आवेंगे किसके काम?

    जीता रहना तुम ऐसों का मर जाने ही के सम है।
    वरंच जीते रहने से तो मर जाना भी उत्तम है।
    जागे रहना जिसका सोने की अपेक्षा भारी है,—
    ऐसे का मर जाना जीते रहने से सुखकारी है।

    जिन दुष्टों के निकट धर्म पाप से दबाना अच्छा है।
    उनका तुरंत इस पृथ्वी से उठ जाना ही अच्छा है।
    जैसे एक धार्मिक सबका सेवा पार लगाता है।
    वैसे ही एक पापी बेड़े का बेड़ा डुबवाता है।

    जो कुछ पाप आज इस दीन-हीन जाति में छाया है।
    हे हे पापी जनो! किया है तुमने इसने पाया है।
    हाय-हाय दुष्कर्म तुम करो और उसका फल यह पावें।
    पापी पाप करें औ चल दें निर्दोषी पकड़े जावें!

    तुम से लाख बनें-बिगड़ें कुछ हानि-लाभ नहीं होना है।
    जिनके बिगड़े सब जग बिगड़े उनका हमको रोना है।
    जिनके कारण सब सुख पावें जिनका बोया सब जन खायं।
    हाय-हाय उनके बालक नित भूखों के मारे चिल्लायं।

    हाय जो सबको गेहूँ दें वह ज्वार बाजरा खाते हैं।
    वह भी जब नहिं मिलता तब वृक्षों की छाल चबाते हैं।
    उपजाते हैं अन्न सदा सहकर जाड़ा गरमी बरसात।
    कठिन परिश्रम करते हैं बैलों के संग लगे दिन रात।

    जेठ की दुपहर में वह करते हैं एकत्र अन्न का ढेर।
    जिसमें हिरन होंय काले चील देती हैं अंडा गेर।
    काल सर्प की सी फुफकारें लुएँ भयानक चलती हैं।
    धरती की सातों परतें जिसमें आवासी जलती हैं।

    तभी खुले मैदानों में वह कठिन किसानी करते हैं।
    नंगे तन बालक नर नारी पित्ता पानी करते हैं।
    जिस अवसर पर अमीर सारे तहख़ाने सजवाते हैं।
    छोटे-बड़े लाट साहब शिमले में चैन उड़ाते हैं।

    उस अवसर में मरखप कर दुखिया अनाज उपजाते हैं।
    हाय विधाता उसको भी सुख से नहिं खाने पाते हैं।
    जम के दूत उसे खेतों ही से उठवा ले जाते हैं!
    यह बेचारे उनके मुँह को तकते ही रह जाते हैं।

    अहा बिचारे दुख के मारे निसदिन पच-पच मरें किसान।
    जब अनाज उत्पन्न होय तब सब उठवा ले जाए लगान।
    यह लगान पापी सराही अन्न हड़प कर जाता है।
    कभी-कभी सबका सब भक्षण कर भी नहीं अघाता है।

    जिन बेचारों के तन पर कपड़ा छप्पर पर फूँस नहीं।
    खाने को दो सेर अन्न नहीं बैलों को तृण तूस नहीं।
    नग्न शरीरों पर उन बेचारों के कीड़े पड़ते हैं।
    माल-माल कहकर चपरासी भाग की भाँति बिगड़ते हैं।

    सुनी दशा कुछ उनकी बाबा! जो अनाज उपजाते हैं।
    जिनके श्रम का फल खा-खाकर सभी लोग सुख पाते हैं।
    हे बाबा! जो यह बेचारे भूखों प्राण गवावेंगे।
    तब कहिए क्या धनी गलाकर अशर्फ़ियाँ पी जावेंगे?

    सच पूछो तो धनिकों का निर्वाह इन्हीं से होता है।
    जो उजाड़ता है इनको वह सारा देश डबोता है।
    चोर नहीं हैं यह बेचारे फिर क्यों मारे जाते हैं।
    हाय दोष बिन हवालात में नाना कष्ट उठाते हैं।

    इस प्रकार यह दीन-हीन जब दु:ख से मारे जावेंगे।
    तब कहिए क्या आए फ़रिश्ते जग का काम चलावेंगे?
    आड़ बाड़ मत दूर करो जो खेत को रक्षित रखना है।
    छाल को वृक्षों पर रहने दो जो तुमको फल चखना है।

    हे धनवानो हा धिक! किसने हर ली बुद्धि तुम्हारी है।
    निर्धन उजड़ जाएँगे तब फिर कहिए किसकी बारी है?
    इससे उचित यही है तुम परिणाम पे अपने ध्यान करो।
    धर्म नीति से नहीं डरते तो निज बरबादी सोच डरो।

    जो गर्मी आने से पहिले शिमले को चल देते हैं।
    सुख के सागर में अपने जीवन की नौका खेते हैं।
    साथ लिए गोरी मेमों को सुख से सदा बिचरते हैं।
    भाँति-भाँति की सुखमय क्रीड़ा और कुतूहल करते हैं।

    तत्ता झोंका जिन्हें स्वप्न में भी नहिं सहना पड़ता है।
    ग्रीष्म शब्द उनको मुख तक से भी नहिं कहना पड़ता है।
    उनकी जाने बला दीन दुखियों से कैसी पटती है।
    कोई मरे जिए कोई उनकी तो सुख से कटती है।

    सय्यद बाबा! एक क्षण भर को ध्यान इधर भी कर लीजे।
    इस सीधी-सी बात का मेरे अवश्य ही उत्तर दीजे।
    जब यह कृषक समाज सर्वथा नष्ट भ्रष्ट हो जावेगा।
    तब यह सुख-लोलुप समाज क्या आप अन्न उपाजावेगा?

    सुख-सागर में लहरें लेना जिसको लब्ध सदा ही है।
    जिसके घर में रंगरलियों से सदा मुहम्मद शाही हैं।
    चाहे टिक्कस के मारे लोगों के तन पे चाम न हो।
    पर उनके व्यय और वेतन में कभी कमी का नाम न हो।

    उनकी आँखों में बाबा जी किसका दु:ख कब जँचता है।
    जिनके धाऊ घप्प पेट में कहत का चंदा पचता है।
    इसी प्रकार वणिक लोगों की भी अब पूँजी घटती है।
    आए वर्ष पाँच दस का जो तत्पर टाट उलटती है।

    साहूकारों के अब तो प्रतिवर्ष दिवाले कढ़ते हैं।
    पूँजी घटी टली जाती है ऋण के तूदे बढ़ते हैं।
    हाहाकार उधर हानि की टिक्कस की ललकार इधर।
    आठों पहर घोर आपद है साहूकारों के सिर पर।

    तुम्हीं बताओ क्या इस घोर विपद का सहना अच्छा है।
    इस प्रकार से प्रजावर्ग का पीड़ित रहना अच्छा है।
    बाबा! उनसे कह दो जो सीमा की रक्षा करते हैं।
    लोहे की सीमा कर लेने की चिंता में मरते हैं।

    अच्छे-अच्छे कपड़ों से तुम अपने अंग सजाते हो।
    इससे क्या हो सकता है जब नीचे कोढ़ छिपाते हो।
    प्रजा तुम्हारी दीन दु:खी रक्षा किसकी करते हो।
    इससे क्या कुछ भी होना है नाहक पचपच मरते हो।

    जो इन कष्टों का जारी रहना तुम बुरा समझते हो।
    बड़े खेद की बात है बाबा! उनसे आप उलझते हो।
    भली राह पर चलने में सौदा साहब के घोड़े हो।
    देश वृद्धि की चलती गाड़ी के मारग में रोड़े हो।

    यही स्वच्छ उद्देश्य अजी जातीय आंदोलन का है।
    वर्तमान अवसर में हमको अभाव भारी धन का है।
    जारी न हो इलेक्टिव सिस्टम तब तक यह नहिं होना है।
    परंतु इसके लिए आपका अजब अनोखा रोना है।

    गोवध का ले नाम अनोखा तुमने स्वाँग मचाया है।
    नक़्शा चितली कबर का तुमने क्या ही ख़ूब दिखाया है।
    जिस झगड़े को तूने अपने हाथों आप मिटाया है।
    अहा! उसी के लिए आज तू छुरी बाँध कर आया है!

    लज्जा करो धर्म के ऊपर पाप की छुरी चलाते हो।
    इस प्रकार से पोत के कालस मुँह को हाथ दिखाते हो!
    ख़ुदग़र्ज़ी के मारे अगली पिछली इज़्ज़त खोते हो।
    मुसलमान-कुल का गौरव औ देश का नाम डुबोते हो।

    फिर से अब शैतान4 आन कर सिर पर तेरे हुआ सवार।
    मुसलमान भाइयों को अपने नहीं तो क्यों करते यों ख़्वार।
    जाति तुम्हारी ऋण की मारी सारी डूबी जाती है।
    तिस पर भी अफ़्सोस तुम्हें दिन-रात ख़ुशामद भाती है।

    एक पास हो गया है ऋण का आफ़त आने वाली है।
    ऋणी नौकरी पेशों के अब पड़ गई देखा भाली है।
    मुसलमान ही अधिक ऋणी हैं निर्धनता के मारे हैं।
    मुँह से कहने को जो बाबा तुमको अति ही प्यारे हैं।

    वह क़ानूनन अपने पद से शीघ्र उतारे जावेंगे।
    क़र्ज़ एक की कठिन खड्ग से निश्चय मारे जावेंगे।
    अय! नामीनेशन के लोलुप! इधर तुम्हारा ध्यान भी है।
    कब यह नियम चला कब हुआ उपस्थित इसका ज्ञान भी है?

    किस-किस ने इस बिल को रोका किसने वाद-विवाद किया,
    किसने किया विरोध और किस-किसने इसका पक्ष लिया?
    आप किया प्रस्ताव समर्थन आप ही उसको पास किया।
    हाँ हुज़ूर वालों ने देकर वोट खरा उपहास किया!

    चुने हुए मेंबर होते तो ऐसा कब होने पाता।
    इस प्रकार कौंसिल में कब नानी जी का घर बन जाता।
    अब भी क्या इसलाम के हामी बन के डींगें मारोगे।
    पक्षपात के मेंबर पर चढ़ झूठी बाँग पुकारोगे?

    चाटुकारि ने बाबा तुमको औंधी बुद्धि सिखाई है।
    स्वार्थांधता पकड़ तुम्हें उल्टे रस्ते पर लाई है।
    जाति का अपने नामीनेशन से यह लाभ कराओगे।
    सबका एक साथ ही अपने हाथों नाम मिटाओगे।

    अहा! तुम्हारी आँखों पर तो गहरी चरबी छाई है।
    मुसलमान लोगों को भी क्यों देता नहीं दिखाई है।
    ट्रस्टी लोगों5 के बिल पर तुमने जो स्वांग मचाया था।
    डुयल युद्ध में मर रहने का भारी भय दिखलाया था।

    उसको क्या इसलामी भाई भूल गए होंगे एक बार।
    लड़कर या मरकर सौंपा बेटे ही को कॉलिज का भार।
    हाय ढिठाई तिस पर भी तुम काला मुँह दिखलाते हो।
    अपने को इसलाम का हामी कहते नहीं लजाते हो?

    यह तो हुआ ज़रा अब अंति संभाषण भी सुन लीजे।
    काम हमारा कहना है सुन के जो जी चाहे कीजे।
    धन बल वयस बड़ाई गौरव तुमने सब कुछ पाया है।
    पर अब उसका शेष हो गया अंत समय बस आया है।

    एक और भी आशा शेष रही है शायद पाओगे।
    मरते मरते जी. सी. एस. आई. भी तुम बन जाओगे।
    पर यह भी सोचो इसको पाकर कितने दिन जीओगे।
    अमृत रूप यह विष है कैसा समझ के इसको पीओगे?

    दो ही चार वर्ष में तुमको पृथ्वी से उठ जाना है।
    जिस घमंड में फूले हो उसका भी ठौर ठिकाना है।
    तुम वह सब मिट जाओगे दो झोंके ऐसे आवेंगे।
    जिनको यहाँ बिताना है वह अपना काल बितावेंगे।

    फिर किस मतलब को यह क़ौमी नमकहरामी करते हो।
    व्यर्थ किसी संकीर्ण हृदय की हाय ग़ुलामी करते हो?
    स्वारथ निस्संदेह तुम्हारा कुछ इसमें अटका होगा।
    किंतु जाति की गरदन पर कैसा भारी झटका होगा।

    थोड़े दिन के लिए अधिक मत रखिए अपने सुख से काम।
    प्रजा भूख से मरती है कुछ उसका भी सोचो परिणाम।
    बड़ी बात क्या जो तुमने सिर को दो बार6 बचाया है।
    दस सिर रखने वाले को भी अंत काल ने खाया है।

    परंतु हा हा इस सिर में अब इन बातों को ठौर नहीं।
    यत्न किए चिकने बर्तन पर ठहर सकी है बूँद कहीं!
    परंतु क्या कीजे जी में यह बार-बार दु:ख होता है।
    हाय हमारा वह बूढ़ा यूँ पाकर नाम डबोता है।

    कभी-कभी जो ध्यान सिमटकर इन बातों से लड़ता है।
    बहुत सोच-साच के अंत में ऐसा कहना पड़ता है।
    बहुत जी चुके बूढ़े बाबा चलिए मौत बुलाती है।
    छोड़ सोच मौत से मिलो जो सबका सोच मिटाती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 621)
    • संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
    • संस्करण : 1950

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