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कालिदास की प्रिय वस्तु

kalidas ki priy vastu

वे. राघवन

वे. राघवन

कालिदास की प्रिय वस्तु

वे. राघवन

और अधिकवे. राघवन

    नरकोकिल हे कालिदास, मैं तुम्हारा वह प्रिय कोकिल हूँ, आम्र-मंजरी को

    खाकर जिसका कंठ मधुर हो गया है तथा जिसका स्वर तुम्हारे

    काव्य-पदो द्वारा उत्कंठित होकर उनकी समता करने का साहस

    कर रहा है

    कालिदास हे नरकोकिल, क्या तुम यह कह रहे हो कि आम्र-वृक्ष ही,

    अपने स्निग्ध पल्लवों के कारण, सेवन करने के योग्य है?

    नरकोकिल आज उसकी शाखाओं पर फैली वन की चाँदनी का यौवन,

    नव-विकसित फूलों के रूप में खिला हुआ है।

    कालिदास हे शकुंतला, जाओ, इन दोनों का विवाह रचाओ, मैं भी

    शीघ्र रहा हूँ। उस मालविका से कहो कि अशोक को

    कुसुमित करने के लिए उस पर धीरे से पाद-प्रहार करे।

    शकुंतला हे कविवर, क्या तुम्हारा हृदय जड़ हो गया है, जो युवक-युवती

    के विवाह में विलंब कर रहे हो?

    मालविका इनका संयोग चिरकालीन हो! तुम इन्हें वियोगाग्नि में पतंगा

    क्यों बना रहे हो?

    कालिदास मेरी सौंदर्य की योग-दृष्टि में लता, युवती, मृग, पक्षी और

    पुरुष में कोई भेद नहीं है। वही अकेली इस संसार में विविध

    प्रकार से उठने वाले भावों को इकट्ठा करके सौंदर्य का

    ज्ञानरूपी सरोवर बना देती है।

    हे शकुंतला और मालविका, तुम दोनों प्रथम दृष्टि में मुझे

    इतनी प्रिय नहीं लगी जितनी कि वियोगाग्नि में तुम्हारी

    आत्मा के विशुद्ध होने के बाद। अग्नि में तपाए बिना कौन-सी

    रचना सुदृढ़ बनती है?

    अरे, मेरे वस्त्र का छोर यहाँ कौन पकड़ रहा है? हाय, यह

    मृगछौना मेरी गति रोक रहा है। लंबी चितवन वाला यह

    मृगछौना, कुश से हुए अपने घावों को दिखाने के लिए, मेरे

    समीप रहा है।

    तुम मुट्ठी भर जंगली धान खाओ, मैं थोड़ा-सा इगुदी तेल

    और कमल के दोने में पानी लाता हूँ।

    कवि इस प्रकार जबकि कालिदास वन में विचरण कर रहे थे,

    उन्होंने दूसरी ओर मार्ग पर एक ऐसा बालक देखा, जिसका

    बल-वीर्य बालकों-जैसा नहीं था।

    जैसे ही वह उस उद्धत बालक को गोद में उठाकर अपने अंगों

    को, उसके अंगों की शिव-भस्म-जैसी धूल से, पवित्र कर रहे

    थे कि उन कविवर को आकाश में उड़ने की इच्छा वाला कोई

    दूसरा व्यक्ति घोड़े पर बैठाकर हर ले गया।

    कालिदास हे कुमार, तुम कौन हो, जो कि तुम्हारा शरीर-स्पर्श मुझे सुख

    से सींच रहा है और आँखें मूँद लेने पर जान पड़ता है जैसे

    मैं समाधि में लीन हो रहा हूँ।

    कुमार मैं दिव्य कामधेनु के अनुग्रह से प्राप्त दिव्य तेज वाला रघु हूँ।

    सौ अश्वमेघ यज्ञ करके इंद्र-पद पाने की इच्छा वाले अपने

    पिता के विघ्नकर्ता इंद्र का मैं सामना करूँगा। इस समीप आते

    हुए मेघ की पीठ पर सवार होकर आप मेरा और वज्रधारी का

    युद्ध देखे।

    कवि कालिदास दिलीप के घोड़े को छोड़कर उधर से आते हुए उस

    बादल पर चढ़ गए, जो निकटवर्ती इंद्रधनुष के तोरण से सजा

    हुआ था, क्योंकि वह कवियों के भावों के अनुरूप, विचित्र रूप

    धारण करके, आकाश में स्वच्छंद विचरण किया करता है।

    मेघ यह राह बड़ी कष्टप्रद है, किंतु सौभाग्य से, हे कवि-श्रेष्ठ, आज

    तुम जैसा सखा मिल गया है। अब निश्चय ही मुझ बादल की

    कवि से प्रचुर तुलना की जा सकती है, क्योंकि मुझमें यदि

    बिजली है तो तुममें प्रतिभा की अंतर्ज्योति है; हम दोनों ही

    अपने रस-समूह से लोक को अनुप्राणित करते हैं।

    कालिदास मैं समझता हूँ, तुम उत्तर दिशा में जा रहे हो, वही मेरा मूलभूत

    प्राचीन निवास है।

    मेघ मैं तुम्हें यक्षराज कुबेर की नगरी अलकापुरी में ले जाऊँगा,

    जहाँ के अंधकार को बाहरी उद्यान में स्थित शिव के मस्तक

    का चंद्रमा नष्ट करता है।

    कालिदास हे बादल, अब मुझे यहाँ गंधमादन पर्वत के वन्य प्रदेश में

    छोड़ दो, जिससे यहाँ बहने वाली ज्ञानमयी गंगा के तट पर

    संसार के आदि माता-पिता के दर्शन संभव हो सकें।

    विमान के बिना ही मैं परमात्म-तत्त्व के निकट पहुँच गया हूँ, जहाँ

    प्रेम के सहारे ही पहुँचा जा सकता है। शब्द और अर्थ के पंखो

    को धारण करने वाला यह गरुड़ के समान सुशोभित हो रहा है।

    अरे, यह तो कुमार वन है, जिसका आश्रय लेकर यदि मैं इस पृथ्वी

    पर कहीं लता बन जाता तो यहाँ विहार करने वाले शिव के

    पैरों से कुचला जाकर अपने सब बंधनों को नष्ट कर देता।

    अथवा, मैं यहीं वन में संगमनीय मणि ढूँढूँगा, जिसके प्रसाद

    से मैं भूतनाथ-महादेव के साथ संयुक्त हो जाऊँगा।

    अहो, मुझे नमस्कार है (मेरे अहोभाग्य हैं) जो कि मेरे सम्मुख

    वाणी, अर्थ और रस से रमणीय सोममय परम ज्योति उदित

    हो रही है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 723)
    • रचनाकार : वे. राघवन
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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