सन्नाटे जब आपस में भिंच जाते
sannate jab aapas mein bhinch jate
सन्नाटे जब आपस में भिंच जाते
क़ैदियों की मानिंद निर्वासन की दिशा में,
भरभरा गिर पड़ती थीं उनकी शक्लें
उनकी परछाइयाँ—
उनकी बदक़िस्मती के निशान
पुरातन-शब्द
घने कुहासे के ऊपर जो अब पनाह नहीं देती थी
न जीवों को न वस्तुओं को।
ताहम, एक याद
या एक लय की सुस्त काहिल रवानी
हुकूमत कर रही थी, अब भी
कशमकशियों, संग्रामों,
ख़तरे की ख़ूबी
भीतर से उठती आवाज़ों की
शिद्दतभरी चाह पर
खुलती हैं अचानक बड़ी सफ़ाई से
ज़ख़्म की ख़ालिस दरारें
एवं डूब जाती हैं बुझी-बुझी स्याह सतहें
सैलाब में
तना हुआ बुलंद सन्नाटा
चीर डालता है उसे। ज़ाहिर नहीं होने देता
अपनी नाव का नुकीला पैंदा
चीरफाड़ में रत खारापन और उबलता फेन
न तनाव को झेल जाती मस्तूल ही
बताती है हवा का रुख़
न रास्ता काट जाने वाली वीरानी ही
कोई हवाला देती है।
है मौत अब तो।
- पुस्तक : दरवाज़े में कोई चाबी नहीं (पृष्ठ 73)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : एमोलियो शोलेशी
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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