Font by Mehr Nastaliq Web

समयातीत

samyatit

अनुवाद : सावजराज

मनीषा जोषी

मनीषा जोषी

समयातीत

मनीषा जोषी

और अधिकमनीषा जोषी

    हिमालय की हिमशिलाओं से पिघल रहा समय

    उस एक क्षण में कितना मृत और कितना जीवंत?

    उस समय को किस मानदंड से नापूँ?

    बर्फ़ीली गुफाओं में बस रहे

    पहाड़ी जानवरों के पदचिह्नों में

    या फिर पिघलकर बहते पानी में बह गए उनके नवजात बच्चों में?

    समय वैसे तो रुक गया था

    जब तुमने मुझसे कहा था—

    'मैं तुम्हें बहुत चाहता हूँ'

    लेकिन फिर

    साथ रहते-रहते

    आधी रात को नींद खुल जाती है

    और हम जागते पड़े रहते हैं बिस्तर में—

    अपने-अपने एकांत में

    तभी वह रुका हुआ समय

    शयनखंड के फूलदान में सजाए

    लिली के फूलों की भाँति

    स्थिर नहीं हो गया?

    भूखे शेर के पंजों में समा जाता समय

    और सूख रहे किसी पोखर के तल में

    प्यासे हाथी की फैलाई सूँढ़ में समाया हुआ समय—

    समय मिलता है मुझे, विदेह, अनेक रूपों में

    लेकिन कभी वह आता है, देह धर

    किसी निर्वस्त्र योगी की तरह

    भिक्षु बनकर खड़ा रहता है मेरे द्वार पर

    और मैं एक शालीन गृहिणी

    उसकी देह को ग़लती से भी देख लूँ

    इसलिए परशाल के द्वार की आड़ में

    नज़रें झुकाकर

    बाहर रख देती हूँ, उसके लिए भोजन की थाली

    वह चला जाता है

    मुझे ‘अखंड सौभाग्यवती भव, शतम् जीवम्’ आशीर्वाद देकर

    और मेरी आँखें भटकती रहती हैं उसके पीछे-पीछे

    वह कहाँ पहुँचा होगा अब?

    कहीं सोया होगा वह, किसी वृक्ष की छाँव में?

    कितना पुराना होगा वह वृक्ष?

    क्या वह वृक्ष जान पाता होगा उस निर्वस्त्र योगी के स्वप्न?

    उसके स्वप्नों में रहती परिणीताओं को?

    युगों-युगों से परिणीत वे शालीन गृहिणियाँ

    ताकती रहती होगी काल को

    अपने अपने रसोईघर में चूल्हों के पास खड़ी होकर

    मैं अपने रसोईघर में उबलती दाल की ख़ुशबू से सराबोर समय को देख रही हूँ

    और निश्चित समयांतराल पर दाल में मिलाती जाती हूँ कोकम और गुड़

    फिर कभी लौटेगा वह योगी?

    या फिर हमेशा के लिए चला गया होगा हिमालय में?

    मैं अपने कमरे की ऊष्मा में भी

    महसूस कर रही हूँ हड्डियाँ गलाती ठंड

    समय फिसल रहा है

    मेरे बदन पर से

    सर्दियों में रूक्ष होकर गिर जाती त्वचा की तरह

    या काल फँस गया है

    हिमपशुओं के जिस्म पर बिछी हरी-भरी रूँओं में?

    मैं नहीं बाँध सकती समय को

    और समय

    मुझे नीचे पटक कर

    छा गया है मेरे ऊपर

    मेरी साँसें फूल रही हैं

    पर मुझे पसंद है

    उसका मुझ पर होना

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनीषा जोषी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY