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समूह

samuh

मनीषा जोषी

और अधिकमनीषा जोषी

    बारिश के बाद

    हरी घास की चादर

    बिखरी पड़ी है इन पहाड़ियों पर।

    दिन-भर यहाँ इस नर्म घास को

    अपने दाँतों तले चबाती रहती

    एक अकेली बकरी को देख

    मुझे अक्सर याद आती है

    चाँद पर अकेले रहते उस ख़रगोश की

    जो पता नहीं कब से अकेला ही है।

    कभी ख़त्म होनेवाली भूख से भी

    ज़्यादा डरावनी होती है

    कभी ख़त्म होने वाली हरी घास।

    उस ख़रगोश को भी शायद

    घने अँधेरे से भी ज़्यादा डरावनी लगती होगी

    प्रचुर, शुभ्र-श्वेत चाँदनी।

    उदास कर रही है मुझे अब

    हरी घास और सफ़ेद चाँदनी।

    अब तो बस अच्छा लगता है

    ग्रीष्म का एक तप्त दिन

    जब कड़ी धूप से बचने

    सूखे मैदान के बीच

    एक एकाकी वृक्ष की छाँव तले

    इकट्ठी हो जाती हैं सारी गाय-भैंसें।

    सुलगते हुए सूर्य के तले

    एक समूह में होना ही है

    जीवन।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनीषा जोषी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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