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समय, स्पेस और तुम

samay, spes aur tum

हर्षित मिश्र

अन्य

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हर्षित मिश्र

समय, स्पेस और तुम

हर्षित मिश्र

और अधिकहर्षित मिश्र

    तुम जानती हो,

    मैंने हमेशा ब्रह्माँड को तर्कों में देखा है।

    तारों की गतियों में,

    ब्लैक होल की गहराइयों में,

    और समय के फैलाव को समझने में

    अपनी ज़िंदगी लगा दी।

    फिर तुम आईं।

    और पहली बार लगा कि

    कुछ चीज़ें न्यूटन के नियमों से परे भी होती हैं।

    तुम हमेशा कहती थीं—

    समय कभी नहीं आएगा, अब ही कह दो।

    और मैं मुस्कुराकर टाल देता था,

    जैसे गुरुत्वाकर्षण

    किसी उल्कापिंड को

    अपनी ओर खींचने से इनकार कर दे।

    पर सच तो यह था,

    कि मैं समय का नहीं,

    उस बिंदु का इंतज़ार कर रहा था

    जहाँ हमारी कक्षाएँ

    हमेशा के लिए एक हो जातीं।

    लेकिन समय कभी रुकता नहीं,

    ही किसी की कक्षा में ठहरता है।

    और मैंने तुम्हें

    अपनी मुट्ठी से रेत की तरह फिसलते देखा—

    एक धूमकेतु की तरह,

    जो पलभर को चमका और फिर आगे बढ़ गया।

    मैंने समय को देखा है—

    कभी धड़कनों से तेज़ भागते,

    कभी रुकी हुई घड़ी में ठहरे हुए।

    कभी हमारी हँसी में कैद होते,

    तो कभी आँखों के किनारे भीगते।

    तुम मेरी ग्रैविटी थीं—

    मुझे खींचती हुई,

    मेरे इर्द-गिर्द एक वलय बनाती हुई।

    पर मैं, किसी भटके हुए क्षुद्रग्रह की तरह,

    तुम्हारी कक्षा में टिक नहीं पाया।

    मैंने चाहा था,

    कि हम किसी बाइनरी स्टार सिस्टम की तरह हों—

    जहाँ दो तारे

    एक-दूसरे के गुरुत्व में बंधे रहते,

    हमेशा, अनंत तक।

    पर हम शायद एक धूमकेतु और ग्रह थे—

    सिर्फ़ एक बार टकराने के लिए बने,

    फिर अलग दिशाओं में बह जाने के लिए।

    तुम्हारी उँगलियाँ

    जब मेरी हथेलियों पर लिखती थीं—

    क्या हम समय को हरा सकते हैं?

    मैं हँसकर कहता था—

    अगर हम प्रकाश की गति से तेज़ दौड़ें, तो शायद!

    पर आज सोचता हूँ—

    चाहे मैं कितनी भी गति पकड़ लूँ,

    तुम्हारे बीते कल तक कभी नहीं पहुँच सकता।

    काश, हम किसी ब्लैक होल में गिर सकते—

    जहाँ समय ठहर जाता है,

    जहाँ अतीत और भविष्य का कोई अर्थ नहीं रहता।

    जहाँ तुम अब भी मेरी हो सकतीं।

    पर प्रेम की भी अपनी भौतिकी होती है—

    जिसे मैं अपनी किताबों में कभी नहीं खोज पाया।

    कोई समीकरण, कोई नियम

    हमें जोड़ नहीं सका।

    हम एक सुपरनोवा थे—

    शानदार, चमकदार, मगर अल्पकालिक।

    अब, मैं इस स्पेस-टाइम की अथाह नदी में

    एक निर्वासित कण की तरह बह रहा हूँ।

    जहाँ हर सेकंड, एक लाइट ईयर जितना लंबा लगता है।

    जहाँ तुम्हारी यादें

    गुरुत्वाकर्षण की तरह मुझे जकड़े रखती हैं।

    मैंने ब्रह्माँड के हर नियम को समझ लिया।

    पर तुम्हारा जाना—

    अब भी सबसे बड़ी अनसुलझी गुत्थी है।

    अगर कभी कोई वर्महोल खुले,

    जो मुझे तुम्हारे पास लौटा सके,

    तो मैं सारे समीकरण छोड़ दूँगा।

    सिर्फ़ यह देखने के लिए—

    कि तुम्हारी उंगलियाँ

    फिर से मेरी हथेलियों पर

    वही सवाल लिखें—

    क्या हम समय को हरा सकते हैं?

    और इस बार,

    मैं बिना हिचके कहूँगा—

    हाँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : हर्षित मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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