साइकिल

saikil

गहरा बहुत गहरा जुड़ाव है

हमारी नॉस्टेलजिया से

साईकिल का

एक सुखद प्रतीति से गुज़रकर

हम गुज़रे कल में पहुँच जाते हैं

याद आते हैं बचपन के वो दिन

जब साईकिल से

एक प्रेयसी की हद तक प्रेम करते थे हम

किसी खेल से कम रोमाँचकारी

कम दिलचस्प नहीं था

साईकिल चलाना उन दिनों

जब नहीं मिली थी अभी

अपनी पहली साईकिल

भाई जो मुझसे बड़े हैं

उम्र में तीन साल

उन्हीं की साईकिल से

सीखा था साईकिल चलाना

ज़्यादा गिरना पड़ना

चोट खाना नहीं पड़ा था

पाँव अच्छी तरह

ज़मीन तक पहुँच जाते थे

सीट पर बैठने के बाद

कद औसत से कुछ ज़्यादा होने की

यह सुविधा थी

हाँ कुशल चालक

साईकिल चलाते चलाते ही हुआ

आठवीं ज़मात में पहुँचा

तब मिली थी

ख़ुद की पहली साईकिल

स्कूल घर से चार किलोमीटर दूर था

आने जाने की असुविधा तो नहीं थी

घर से रिक्शा भाड़ा मिल जाता था

जो ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही हुआ करता था

बचे हुए पैसों से

चाट, पाचक और गुड़ के लट्ठे

का भी जुगाड़ हो जाता था जिसमें

पर दूसरे बहुत से साथियों की तरह

मुझे भी चाहिए थी साईकिल

ताकि अपनी जमात में

थोड़ा और रुआब गाँठ सकूँ

ख़ूब चलाई थी

स्कूल और कॉलेज के दिनों में साईकिल

हर छोटा बड़ा काम

साईकिल से निबटाया करता था

चाहे स्कूल कॉलेज जाना हो

ट्यूशन क्लास पहुँचना हो

बाज़ार करना हो

या फिर दोस्तों के घर मिलने जाना हो

साईकिल तो थी ही

आज भले ही

उससे बेहतर और ज़्यादा तेज सवारियाँ

चलाता हूँ

पर वो और तरह का आनंद था

मस्ती से एकदम सराबोर

दोस्तों से साईकिल रेस लगाने में

हैंडल छोड़कर साईकिल चलाने में

स्लो साइक्लिंग में

क्या-क्या मज़े थे

सोचने भर से

रोमाँच से भरपूर हो जाता है

आज भी मन।

स्रोत :
  • रचनाकार : राजीव कुमार तिवारी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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