सफ़र
खुली खिड़की पर थमे हुए दो हाथ
और पीछे दूर दृश्यों में जड़ी पहाड़ियाँ
आस्मान को पीछे सरकाती हुईं...
गिरते हरे झरने में नहाती उसकी आँख
उसके बदन के चिकने पत्थर पर बजती
खिलखिलाती
वह
व्यक्तित्व के रूमाल में कढ़ा
एक सुर्ख़ फूल
संवेदना से टटोलता
दोनों मौन,
और रँभाती हुई पहाड़ियाँ खिड़की के बीच आधी इधर आधी उधर
और आस्मान दोपहर के कंधों पर ऊँघता बेख़बर...
...तभी झरने में नहाती आँख ने कुछ कहा
पँखुरियों से बोझिल फूल
डाल पर झुका
मधुमक्खी की गुनगुन में ट्रेन का डिब्बा हिला
और फुर्ती से गति बदलने लगा
और हवा का मन बहकने लगा...
पहाड़ियाँ कुछ नज़दीक-सी दिखीं
और चलने लगीं
रूमाल की ओर... ओर... ओर...
रूमाल का दिल बड़ा हो गया,
उँगलियों ने हाथ में लगे ही लगे
उस दूसरे हाथ को थाम लिया
और उसकी उँगलियों के क्षितिज खोजने लगीं
जहाँ झरने का संगीत
आदमी की भाषा में
आस्मान की झपकी तोड़ता हुआ तेज़ बह रहा था...
एकाएक पहाड़ियाँ पीछे हटती हटती खो गईं;
आस्मान चौकन्न,
पुख़्ता ज़मीन का एक टुकड़ा
घिसटता हुआ सहसा सतह पर तैर आया
और बेशुमार आवाज़ों की बनी हुई ज़ंजीर
हाथों में बँध गई,
झरना सूख गया—
वहाँ आलू की फ़सल खड़ी थी
जिसे खोद कर वे जल्दी जल्दी रूमाल में भरने लगे
लोगों की नज़र बचा कर
...रूमाल भी भूल से कोई छोड़ कर चला गया था।
- पुस्तक : ज़ख़्म पर धूल (पृष्ठ 20)
- रचनाकार : मलयज
- प्रकाशन : रचना प्रकाशन
- संस्करण : 1971
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