आख़िरी पड़ाव के दुःख

akhiri paDav ke duःkha

उज्ज्वल शुक्ल

उज्ज्वल शुक्ल

आख़िरी पड़ाव के दुःख

उज्ज्वल शुक्ल

और अधिकउज्ज्वल शुक्ल

    होली का वह चुटकी भर गुलाल

    जो गाँव के कोने में

    रहने वाली एक आजी के

    माथे पर नहीं लग सका

    अपना रंग त्याग देता है

    एक जीवन दुःख नहीं त्याग सकता

    शासक के मोह में जैसे रहती है सत्ता

    किसी कोने में दुःख रहता है

    पूरे व्याकरणिक नियमों के साथ

    उन आजी के घर

    एक गाय बँधी रहती थी

    बेटियाँ खुली रहती थीं

    फिर गाय खुल गई एक दिन

    एक-एक करके बेटियाँ जा बँधीं

    अब वह अक्सर ग़ायब हो जाती हैं

    गाँव से

    और महीनों बाद आती हैं घर

    कभी-कभी उनके पति का ज़िक्र

    किसी घर की चर्चा में आता है

    आज भी अपने पति के क़िस्सों से

    वह ग़ायब हैं

    आज भी उनका पति

    बिना गुलाल वाले माथे पर उनके साथ है

    एक बूढ़ा भी है गाँव में

    जिसके होंठ दिन भर लरजते हैं

    और कहा जाता कि वह जाप करता है

    हालाँकि उसका बेटा एक युद्ध में मारा गया था

    उसकी इच्छा है कि जल्द ही

    ईश्वर के साथ मुठभेड़ हो

    जैसे कंबल के कोने से ठंड घुस आती है

    चाहते हुए भी

    घर में दुःख घुस आए

    दूर किसी मंदिर में कीर्तन होता है

    प्रसाद बँटता है

    कोई सोहर गाया जाता है

    पूरे वितान में तमाशा चलता रहता है

    दुःख विस्तार भी करता है

    इतना कि

    जब देखता हूँ शाम होते ही

    अलग-अलग दरवाज़े पर जाते बूढ़ों को

    लगता है—वे होते हुए भी

    लगभग अदृश्य हो जाते हैं

    घरवालों के लिए

    इसी तरह आई होगी

    विलुप्त पक्षी की आख़िरी आवाज़

    इसी तरह

    अंतिम मनुष्य मरेगा

    छोड़कर भरी पूरी पृथ्वी

    अनुभव की आत्मा

    दुःख की गठरी

    सुख की लाठी

    मैंने गाँव के बीचोबीच

    एक दरी बिछाई

    और दुःखों को माँगना शुरू किया

    मेरे साथ वह आजी और बूढ़ा भी हैं

    शेष सब जा रहे हैं

    अपने-अपने रास्तों पर

    सिक्के फेंकते हुए

    एक सिक्के को माथे पर लगाए

    सुख धूप ले रहा होता है

    और बाक़ी सिक्कों से मिला भोजन

    दुःख खा रहा होता है।

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