आदमी जहिया बिसरि जायत प्रेम
आदमी
जहिया बिसरि जायत
प्रेम केनाइ,
बिसरि जायत मुँह-कान
हत्याराकेँ,
आ बिसरि जायत
हत्याकेँ हत्या कहनाइ सेहो।
प्रेम आदमीकेँ,
क्रूरता आ हिंसाक विरुद्ध
लड़नाइ सिखबैत अछि।
आदमी जहिया बिसरि जायत
केनाइ प्रेम,
ओ बिसरि जायत लड़नाइ युद्ध
प्रेमक दुश्मनक विरुद्ध।
प्रेम आदमीकेँ
कृत्रिमताक बदला
सिखबैत अछि सहज आ प्रकृत बनब,
कृत्रिम दरवार आ महल जकाँ नहि,
सहज घर जकाँ।
आदमी जहिया बिसरि जायत,
केनाइ प्रेम
ओ बिसरि जायत
घरक अर्थ
ओ जायत कोनो गाछ लग
आ कहत
हमरा घरदिस नहि,
गामदिस नहि,
शहरदिस नहि,
लऽ चल ओमहर
जतऽ होइ जंगल
निर्जन जंगल।
पशुसँ भरल।
आदमीकेँ
प्रेम स्मरण रहबाक चाही,
हत्याकेँ हत्या कहबाक लेल,
प्रेमक दुश्मनसँ लड़बाक लेल,
जीवाक लेल आ जीवऽ देबाक लेल।
प्रेम केनाइ जीवनक निशानी अछि।
तेँ, जे प्रेम नहि करैत अछि
ओ मरि जाइत अछि।
प्रेम, धरतीसँ,
प्रेम मनुक्खसँ,
प्रेम मेहनतिसँ।
धरती, मनुक्ख आ मेहनतिक विरुद्ध ठाढ़,
निश्चय, दुश्मन अछि प्रेमक।
हिंसक अछि प्रेमक।
आदमी,
जहियासँ सिखैत अछि
प्रेम करनाइ,
सीख लैत अछि
सोचनाइ आ लड़नाइ।
सोचब आ लड़ब
जीवनक सबसँ अहम लक्षण अछि।
आदमी
जँ जीबैत अछि
तँ सोचत जरुर,
नहि सोचलासँ
आदमी मरि जाइत अछि,
तेँ, आदमी
जे जनैत अछि
प्रेम करब,
ओ सोचैत अछि
आ लड़ैत अछि
ओ सब किछुके विरुद्ध,
जे प्रेमक विरुद्ध अइछ।
- पुस्तक : समय गीत (पृष्ठ 99)
- रचनाकार : रोशन जनकपुरी
- प्रकाशन : मैथिली विकास कोष, जनकपुर
- संस्करण : 2013
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