ऋतुएँ गुनती हैं

rituen gunti hain

पंकज सिंह

पंकज सिंह

ऋतुएँ गुनती हैं

पंकज सिंह

और अधिकपंकज सिंह

    हवा की तरह, हल्की, त्वचाहीन गुज़रती जाती हैं घटनाएँ

    हमारे आस-पास हमारे शब्द स्थानांतरित होते रहते हैं

    विकल्पों में तुम काँपती उँगलियों से जमी हुई सर्द

    रातों को टकोरती हो जाड़े की धूप की तरह तुम्हारे शब्द

    मेरे कमरे में बिछे रहते हैं मेरे बिस्तर मेरी किताबों

    कमरे की तस्वीरों के पीले एकांत पर...

    तुम्हारी उम्र के बीते वर्ष लगातार तुम्हें दुहराते

    चले जा रहे हैं तुम्हारी देह पर पीड़ा भरे बलात्कारों

    की प्रेत छायाएँ हैं नम आँखों में अवसन्नता का अँधेरा है

    ...और तुम बदहवासी में अपनी नींद ढूँढ़ रही हो

    शोरों और संगीत में कहीं कुछ नहीं है जो तुम्हारे दर्द से अलग

    कोई नया अनुभव हो बेडौल पत्थरों की इस घाटी में

    कहीं ज़िंदगी नहीं केवल एक अभिशाप का अजाना सम्मोहन भर है...

    तुम्हारे फड़कते हुए होंठों पर टूटते शब्द मुझे तुम्हारी

    नीली अतृप्तियों की सुरंगों तक ले जाकर छोड़ देते हैं हिंस्र

    और पराजित

    और तुम्हारी गोपन कामनाएँ विवशताओं में नितांत अकेली

    हो जाती हैं हर बार तुम अपनी बाँहें आकाश की ओर उठा देती हो

    मैं तुम्हारे वक्षोजों पर तुम्हारी उठी हुई असहाय बाँहों पर

    तुम्हारे भयद अंधकार पर एक धड़कता हुआ प्रकाश-लेख

    लिख देना चाहता हूँ अस्तित्व के सारे अर्थ समाप्त करता हुआ

    लेकिन

    तुम्हारे आस-पास एक सभ्य अँधेरा है,

    और वीनस की बिना बाँहों वाली मूर्ति-सी तुम उसी अँधेरे की

    चालू औपचारिकता में शामिल कर ली जाती हो

    तुम्हारे इर्द-गिर्द की दुनिया में पारस्परिक निर्ममताएँ और घृणा

    स्वाभाविक आचार हैं और मेरे पागल आवारा शब्द वहाँ नहीं

    जाना चाहते... और फिर भी मैं निरंतर अपनी भाषा को

    तुम्हारे उपयोग की कोई मुद्रा बना सकने के लिए उत्तेजना में

    दौड़ता रहता हूँ एक अँधेरे से दूसरे अँधेरे तक

    लंबी चुप्पियों के तनाव भरे तंतुजाल बुनते हैं हमारे संबंध

    और मेरे अग्निभरे शब्द मुझमें पिघले हुए लावे से दौड़ते हैं

    मेरी युवा चीखों के पार तुम्हारा उदास प्यार

    मेरी दरकती मांसपेशियों से दूर... दूर... दूर

    बहुत दूर होता चला जाता है मेरे निरभिमान समर्पण को

    दराँतियों से फाड़ता हुआ

    गर्मियों की उचाट दुपहरियों में शरद के सुनहरे धूप भरे दिनों में

    या वसंत की नन्ही चिड़ियों और फूलोंवाली शामों में

    एक ही तरह तुम बियाबान में आँसुओं में निःशब्द

    जिस पौराणिक अनिर्वचनीय को दुहराती हो : कुछ नहीं है वह

    तुम्हारी काली दुनिया के अँधेरे का रहस्य : और रहस्य कुछ नहीं

    है कहीं तुम्हारी सोई आत्मा की अंतहीन धुँध के सिवा

    एक झूठा नगर धर्म तुम्हें भय देता है

    और मैं जानता हूँ कहीं नहीं था वह अंधकार

    जो तुमने जिया है

    कहीं नहीं वे भय जिन्होंने तुम्हारी उम्र के वर्षों को

    लिया है... और मैं चुप हूँ

    और मैं चुप हूँ

    मगर मेरी दुर्दम हिंस्रताएँ हर बार लौटकर मुझसे उत्तर माँगती हैं

    और मैं चुप हूँ क्योंकि वह जो तुम्हारी आत्मा में कुंडलियाँ मारे

    बैठा है सदियों का बूढ़ा नरक है

    मुझसे नहीं टूटता इस अँधेरे का मायाजाल

    और मेरे समर्पण की सारी अंतरंगता मुझ तक लौट आती है

    असंवेदित मृत... और फिर भी पूर्ववत् तना रहता है हम पर

    अपनी पाशविक अपरिहार्यता फैलाए हमारा संबंध

    आसमान और रंग भरे बादल और दृश्यावलियाँ सब

    मेरे लिए बन जाते हैं एक प्रश्नाहत विक्षेप और पता नहीं

    कब से कब तक के लिए ऋतुएँ गुनती हैं एक संबंध

    स्रोत :
    • रचनाकार : पंकज सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए