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ऋतु पकने का दु:ख

ritu pakne ka duhakh

अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र

गोपालकृष्ण रथ

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गोपालकृष्ण रथ

ऋतु पकने का दु:ख

गोपालकृष्ण रथ

और अधिकगोपालकृष्ण रथ

    तरुणकांति बाबू की आँखों से

    नींद नहीं उड़नी थी

    भात की थाली से हाथ

    नहीं लौटना था

    इस जीवन का रंग पनिया है जानकर

    हताश नहीं होना था।

    सपने पतले लंबे काँच के गिलास जैसे सुंदर हैं,

    ख़ूब ज़ोर से आवाज़ होने पर

    टूटकर चूर-चूर होंगे निश्चय ही

    उन्हें भींचकर पकड़े हुए रोना भी

    फूल बनाने वाली निर्लज्ज अँगुलियों का भ्रम है।

    रक्त भला कब नहीं झरता?

    जन्म के समय?

    प्रथम निःशर्त समर्पण के समय?

    अपने भीतर अपने ही युद्ध के समय?

    यहाँ तक कि संधि के समय?

    परंतु अब

    तरुणकांति बाबू का चेहरा गंभीर है :

    जैसे कि बादलों को, आँधियों को काटते हुए

    खड़ा हो प्रतापी सूर्य,

    बर्छे-सी है उसकी साँसें

    और शब्द हैं ठोस विश्वास।

    धम् धम् पग बढ़ाने पर

    भय पसर जाता है पार्षदों में

    सोच-समझकर सीधे खड़ा होना पड़ता है

    जयद्रथों को, मानसिंहों को

    सीधी-सीधी बातों से

    ज्यामिति का घेरा बन जाता है,

    अंदर प्रवेश करने का

    साहस नहीं होता जल्लाद में।

    अब टेबुल साफ़ है

    कार और चश्मे का शीशा साफ़ है,

    और आवाजाही का रास्ता साफ़ है,

    मानचित्र साफ़ है।

    धूप को भी पकने में समय लगता है,

    जिस तरह पकने में समय लगता है

    शीत को, बसंत को

    अमावस्या और पूर्णमासी को।

    एकाकी लगने पर आँखें झूल जाती हैं।

    कोई नहीं समझता

    एक अंगार के खपते चले जाने का कष्ट,

    चेहरा फूल जाने की यंत्रणा,

    ऋतु पक जाने का दुख।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विपुल दिगंत (पृष्ठ 70)
    • रचनाकार : गोपालकृष्ण रथ
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2019

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