मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा

mera punarjanm nahin hoga

अनुज लुगुन

अनुज लुगुन

मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा

अनुज लुगुन

और अधिकअनुज लुगुन

    अँधेरी रात के आधे पहर

    जब हवा अपने तेज़ झोंकों से पेड़ों को डरा रही थी

    फेकइर की ‘फें-फें’ जंगल की पगडंडियों को

    और अधिक डरावना बना रही थी

    पूँछ वाले चमगादड़ साल के पेड़ों को

    खरोंच–खरोंच कर घायल कर रहे थे

    तब नन्हे क़दमों से मैंने दस्तक दी

    और लोगों ने झट दरवाज़े खोले

    उन्हें डर था कि कहीं कोई आदमख़ोर मुझे उठा ले

    बचपन के ये दिन थे

    जब सूरज भी डर से हमें

    कोहरे की ओट से देखता था

    डर अपने लिए नहीं

    हम बच्चों के लिए था

    उन्हें डर था कि

    हमारी तोतली बोली

    हमारे घरौंदे रौंद दिए जाएँगे

    डर डर था

    लेकिन वह समर्पण कतई नहीं था

    मैंने आँख खोली

    और साथ ही कई बच्चे भी

    हम अबोध के लिए

    हर घड़ी एक उत्सव था

    और भूख की दुनिया

    माँ की गोद तक सीमित थी

    लेकिन माँ की आँखों में

    इसका असीमित विस्तार था

    पिता की छाँव में गीत थे

    लेकिन आहत और घायल

    एक दुनिया जल रही थी

    जिसे हम अपनी अबोध आँखों से देख नहीं पाते थे

    ओह मेरी माँ!

    तुम्हें प्रसव की पीड़ा

    कितनी सहज लगी होगी

    इस दर्द के सामने?

    रात में ढिबरी की छोटी-सी रोशनी में अकेले

    हम बच्चों को अपनी आँचल में छुपाये

    तीर-धनुष लिए हुए

    डरावनी आहटों को टोहती थी

    कुत्तों के भौंकने पर अचानक सतर्क होकर

    धनुष की डोरी तन जाती थी

    तेज़ बारिश, बिजलियों की कड़क

    और हवा की साँय-साँय के बीच

    जब कोई भी आहट नहीं होती थी

    तब तुम्हारी आँखों में रोशनी बढ़ने लगती थी

    तुम्हारे दिल की धड़कन तेज़ हो जाती थी

    यही वक़्त होता था पिताजी

    और उनके साथियों के जंगल से घर लौटने का

    दरवाज़े पर हल्की दस्तक होती थी

    और किवाड़ खुलते ही तुम्हारी आत्मा का सूरज

    आधी रात को मुस्कुराने लगता था

    ये हमारे खेलने-कूदने के दिन थे

    हम यहीं बढ़ रहे थे

    हमारा भविष्य यहीं तय हो रहा था

    आज मैं अपने बचपन से बहुत दूर निकल आया हूँ

    लेकिन तुम अब भी वहीं की वहीं हो

    सुदूर गाँव में जंगलों के बीच

    मनोरम छोटी-बड़ी नदी, पहाड़ियों की

    वीभत्स हलचलों के बीच

    उसी हालत में

    उसी तरह

    तुम्हारे तन के वस्त्र पर जितने टाँके हैं

    उससे ज़्यादा घाव तुम्हारी आत्मा पर हैं

    तुम्हारे बच्चे, मेरे छोटे भाई वहीं बड़े हो रहे हैं

    रेल की धकधकाती आवाज़ और

    बुलडोजर की आदमखोर दहाड़ के बीच

    गुवा और नुवामुंडी की घटना को हुए दशकों बीत गए

    हत्या और आगजनी के दौर हुए अरसा हुआ

    ताऊजी और उनके साथियों के शहादत के दिन पीछे छूट गए

    तुमने तो देखा ही था

    किस तरह चाचाजी को

    सिमडेगा जेल के ठीक सामने

    जेल से निकलते ही गोली मार दी गई थी

    हमारे पुरखों की शहादत कहाँ रुकी है?

    अनगिनत सदियों पुरानी

    हमारी इस धरती में किसी का पुनर्जन्म नहीं होता

    कोई अवतरित नहीं होता

    सिवाय विस्थापन, हत्या, लूट,

    आगजनी, बलात्कार और सैन्य कार्रवाइयों के

    हमारा पुनर्जन्म नहीं होता

    लेकिन हम जीवित रहते हैं आने वाली पीढ़ियों में

    हज़ार-हज़ार शताब्दियों से भी आगे

    फसलों में, गीतों में, पत्थरों में

    मृत्यु के बाद भी हम

    अपनी धरती से दूर नहीं होते

    ममतामयी!

    पुरखों के जीवन का विधान

    मुझ पर भी लागू हो

    मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा

    लेकिन मेरे बाद भी

    कोई और आएगा गीत गाते हुए...

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनुज लुगुन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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