(छः वे अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के अवसर पर संयुक्त अरब अमीरात के प्रवास के क्रम में दुबई में रचित)
प्रकृति ने संपदा लुटाई,
तुम्हारे हिस्से में रेत
और पठार आया।
प्रकृति को तुमने
जी भर कोसा,
खड़ा-खोटा सुनाया,
उसने सब सहा।
प्रकृति मुस्कुराती रही,
तुम्हें रिझाती रही,
पर हठी बालक-सा
तुम खीझते रहे।
दूसरों की हरियाली पर रीझते रहे।
अपने भाग्य पर तरस खाते रहे।
तुम्हारा मुह मलिन देख,
नील वितान सागर,
विचलित हो उठा।
अपना अंक पसार कर
तुम्हें गले से लगा लिया,
तुम्हारे माथे पर चुम्बन गढ़ा,
तुम्हारी आँखें पोछी,
उस दिन तुमने उस प्रेम को
नहीं पहचाना।
ज़िद्दी बालक की तरह
उपेक्षा से भरकर,
तुमने सागर पर ताने मारे।
तू तो ख़ुद खाड़ा है,
भला तू मेरे जीवन में
मिठास कहाँ से घोल पाएगा।
सागर की तरंगें बढ़-बढ़ कर
तुम्हारे पाँव खँघालने लगे,
तुम्हें चुमने दुलराने लगे
लहरों ने प्यार से कहा
ममता के आँसू का स्वाद भी
खाड़ा ही होता है।
किंतु उसके हृदय में
प्यार का सागर हिलोरें लेता है,
धैर्य रख
वसुधा माता है,
माँ भेदभाव नहीं करती
सब के हिस्से में कुछ न कुछ देती है
अपने लिए कुछ नहीं रखती।
यूँ ही नहीं किसी ने कहा है।
रत्नगर्भा वसुंधरा
एक दिन धरती के गर्भ से
तरल उर्जा फूट पड़ी
तुम्हारे हिस्से में अजश्र संपदा
माँ ने उड़ेल दी।
तुम देखते ही देखते वैभवशाली बन गए।
रातों रात अपनी क़िस्मत पर
ईठलाने लगे, इतराने लगे।
आसमान को छूता
सबसे उँचा मुकुट
तुमने धारण कर लिया।
समुद्र को खींचकर
अपने आँगन में ले आए।
उसके वक्ष पर द्वीप मालाओं का
कसीदा गढ़ लिया।
जिनके हिस्से में सस्यश्यामली माटी
और हरितिमा थी,
तुम्हारे उन्नत गर्वीले
मस्तक को छूने आए हैं
तुम्हारे वैभव को सराहने आए हैं
हमारी आँखें फटी की फटी है,
और सागर की यह बात
फिर से दुहराने आए हैं
धैर्य रख,
माँ भेदभाव नहीं करती
सब के हिस्से में कुछ न कुछ देती है
अपने लिए कुछ नहीं रखती।
- रचनाकार : कलानाथ मिश्र
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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