जनतंत्रक दुर्घटना
फट्! फट्! फट्! फटाक्!
जनतंत्र टंकी फाटि गेल
जनताक मोन पर जमल बर्फ
चेतनाक सूर्यसँ पधिल-पघिल
कैक क्यूसेक्स जल-प्लावन कयल।
उठल अछि शब्दक भयंकर बिहाड़ि
गीड़ लेत हमरा सबकेँ,
किताबक फोहार, अखबारक वर्षा
भाषणक नदी आ बहसक नाला,
सेमिनारी नहर, आश्वासनक बान्ह,
विधानसभाक पोखरि, आ संसदीय डाबर
सब उधिया रहल अछि
उमड़ रहल अछि हमरा चारुकात।
आ हम सब भरि मुखहर पानिमे दहाइत छी।
गाम आ शहर, गली आ सड़क,
खेत आ फैक्ट्री, घर आ ऑफिस—
शब्दक एहि बाढ़िमे
दहाइत भसियाइत सब किछु
परस्पर टकरा कऽ टूटि रहल अछि—
योजनाक फाइल आ इतिहासक पात
भविष्यक कंट्रैक्ट आ विज्ञानक प्रबन्ध।
हम कतय छी? कतय जायब हम?
डल झील कि ट्राम्बेक रिएक्टर
हाजीपीरक चौकी कि ऊटीक जेल?
से पूछैत छथि श्री...को औ...?
मनुक्ख आ कि राशन कार्ड?
उत्तर छैक क्रान्ति आ क्रान्ति
आ बैसैत छथि जा कऽ
चाहक दोकानमे?
- पुस्तक : मैथिलीक नव कविता (पृष्ठ 190)
- संपादक : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
- रचनाकार : रामानुग्रह झा
- प्रकाशन : सांस्कृतिक विभाग, बिहार
- संस्करण : 1971
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