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रख देता है

rakh deta hai

प्रतिभा शतपथी

अन्य

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प्रतिभा शतपथी

रख देता है

प्रतिभा शतपथी

और अधिकप्रतिभा शतपथी

    रख देता है कवि

    धूल के लिए, जालों के लिए,

    कीड़ों के लिए कविता।

    अपने जलते-बुझते आवेग

    तपाक् से बीत जाते दिन

    मुश्किल से कटती रातें

    वीणा की झंकार-सी धड़कनें

    टप-टप आँसू, किरणों-सी मुस्कान

    कली-सी लाज,

    अपने छिन-पल, अपने महाकाल को

    रखकर जा रहा है वह।

    शब्दों की मोहरें

    अनकहे शब्दों की भिक्षाथाल

    यश-अपयश के झूठे खेल

    अपने जीने का अर्थ

    अनभिव्यक्त का सूनापन

    ऋतुओं की उर्वरता

    चाहत की होनी-अनहोनी

    सब छोड़कर जा रहा है वह।

    अपनी बाध्य देह, अबाध्य मन

    तुम्हारे लिए अपने

    युग-युग के अन्वेषण

    छोड़कर जाने के सिवाय

    और क्या उपाय था उसके लिए?

    निस्पृह, अपठनशील

    आख़िर किसे सौंप जाता

    अपनी दृश्य-अदृश्य की समग्रता?

    क्या भीड़ में

    हो जाती है खपत

    लंबी साँसों और अपनेपन की?

    पागलपन में

    वह जो चम्मच भर सपना, चुटकी भर स्नेह

    सहेजकर पकड़े हुए है

    डाल देना अब उन्हें

    धूल-जालों और

    कीड़ों के खुले मुँह में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तुम्हारे लिए हर बार (पृष्ठ 23)
    • रचनाकार : प्रतिभा शतपथी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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