प्रेम पर फुटकर नोट्स

prem par phutkar nots

लवली गोस्वामी

लवली गोस्वामी

प्रेम पर फुटकर नोट्स

लवली गोस्वामी

और अधिकलवली गोस्वामी

     

    एक 

    जिन्हें यात्राओं से प्रेम होता है 
    वे यात्री की तरह कम 
    फ़क़ीरों की तरह अधिक यात्रा करते हैं
    जिन्हें स्त्रियों से प्रेम होता है 
    वे उनसे पुरुषों की तरह कम 
    स्त्रियों की तरह अधिक प्रेम करते हैं
    प्रेम के रंगीन ग़लीचे की बुनावट में 
    अनिवार्य रूप से उधड़ना पैवस्त होता है
    जैसे जन्म लेने के दिन से हम चुपचाप
    मरने की ओर क़दम दर क़दम बढ़ते रहते हैं
    वैसे ही अपनी दुपहरी चकाचौंध खोकर
    धीरे-धीरे हर प्रेम सरकता रहता है
    समाप्ति की गोधूलि की तरफ़
    टूटना नियति है प्रेम की 
    यह तो बिल्कुल हो ही नहीं सकता
    कि जिसने टूट कर प्रेम किया हो 
    वह अंततः न टूटा हो

    प्रेम में लिए गए कुछ चिल्लर अवकाश
    प्रेम टूट जाने से बचाने में मदद करते हैं
    वह जो प्रेम में आपका ख़ुदा है 
    अगर अनमना होकर छुट्टी माँगे
    तो यह समझना चाहिए 
    कि प्रेम के टूटने के दिन नज़दीक हैं
    पर टूटना मुल्तवी की जाने की कोशिशें ज़ारी है

    प्रेम आपको तोड़ता है 
    आपके रहस्य उजागर करने के लिए
    बच्चा माटी के गुल्लक को यह जानकर भी तोड़ता है 
    कि उसके अंदर चंद सिक्कों के अलावा कुछ भी नहीं 
    यह तुम्हारे लिए तो कोई रहस्य भी नहीं था
    कि मेरे अंदर कविताओं के अलावा कुछ भी नहीं 
    फिर भी तुमने मुझे तोड़ा

    हम दोनों ख़ानाबदोश घुमक्कड़ों के उस नियम को मानते थे
    कि चलना बंद कर देने से आसमान में टँगा सूरज
    नीचे गिर जाता है और मनुष्य का अस्तित्व मिट जाता है

    आजकल लोग कोयले की खदानों में 
    ज़हरीली गैस जाँचने के लिए
    इस्तेमाल होने वाले परिंदे की तरह
    पिंजड़े में लेकर घूमते हैं प्रेम
    ज़रा-सा बढ़ा माहौल में ज़हर का असर
    और परिंदे की लाश वहीं छोड़कर
    आदमी हवा हो जाता है

    कुछ लोगों में ग़ज़ब हुनर होता है
    पल भर में कई साल झुठला देते हैं
    फिर अनकहे की गाठें लगती रहती है
    साल दर साल रिश्तों में और एक दिन
    गाँठें ही ले लेती है साथ की माला में
    प्रेम के मनकों की जगह

    प्रेम कभी पालतू कुत्ता नहीं हो पाता
    जो समझ सके
    आपका खीझकर चिल्लाना 
    आपका पुचकारना
    आपका कोई भी आदेश
    वह निरीह हिरन-सी 
    पनैली आँखों वाला बनैला जीव है
    आप उस पर चिल्लाएँगे 
    वह निरीहता से आपकी ओर ताकेगा
    आप उसे समझदार समझकर समझाएँगे
    वह बैठकर कान खुजाएगा
    अंत में तंग आकर आप
    उसे अपनी मौत मरने के लिए छोड़ जाएँगे

    जब भी सर्दियाँ आती हैं मेरी इच्छा होती है
    मैं सफ़ेद ध्रुवीय भालू में बदल जाऊँ
    ऐसे सोऊँ की नामुराद सर्दियों के
    ख़त्म होने पर ही मेरी नींद खुले
    जब भी प्रेम दस्तक देता है द्वार पर
    मैं चाहती हूँ मेरे कान बहरे हो जाएँ
    कि सुन ही न सकूँ मैं इसके पक्ष में
    दी जाने वाली कोई दलील
    जो ख़ूबसूरत शब्द हमसे बदला लेना चाहते हैं 
    वे हमारे छूट गए पिछले प्रेमियों के नाम बन जाते हैं

    बाढ़ का पानी कोरी ज़मीं को डुबो कर लौट जाता है
    धरती की देह पर फिर भी छूट जाते हैं तरलता के छोटे गह्वर
    दुःख के कारणों का आपस में कोई संबंध नहीं होता
    बस एक-सा पानी होता है सहोदरेपने के नियम निबाहता
    उम्र भर दुःखों के सब गह्वरों में झिलमिलाता रहता है 

    भय कई तरह के होते हैं, लेकिन आदमियों में 
    कमज़ोर पड़ जाने का भय सबसे बलवान होता है 
    अंकुरित हो सकने वाले सेहतमंद बीज को 
    प्रकृति कड़े से कड़े खोल में छिपाती है 
    बीज को सींचकर अपना हुनर बताया जा सकता है
    उस पर हथौड़ा मारकर अपनी बेवक़ूफ़ी साबित कर सकते हैं
    यों भी तमाम बेवक़ूफ़ियों को 
    ताक़त मानकर ख़ुश होना इन दिनों चलन में है

    रोना चाहिए अपने प्रेम के अवसान पर 
    जैसे हम किसी संबंधी की मौत पर रोते है
    वरना मन में जमा पानी ज़हरीला हो जाता है
    फिर वहाँ जो भी उतरता है उसकी मौत हो जाती है
    त्यक्त गहरे कुएँ में उतर रहे मज़दूर की तरह

    तुम्हारी याद भी अजीब शै है
    जब भी आती है कविता की शक्ल में आती है

    तुम किसी क्षण मरुस्थल थे। रेत का मरुस्थल नहीं। वह तो आँधियों की आवाजाही से आबाद भी रहता है। उसमें रेत पर फिसलता-सा अक्सर दिख जाता है जीवन। तुम शीत का मरुस्थल थे जिसमे नीरवता का राग दिवस-रात्रि गूँजता था। तुमसे मिलने से पहले मैं समझती थी कि सिर्फ़ बारिश से भीगी और सींची गई धरती पर उगे घनघोर जंगल में ही कविता अपना मकान बनाना पसंद करती है, सिर्फ़ वहीं कविता अपनी आत्मा का सुख पाती है। तुमसे मिलकर मैंने जाना बर्फ़ के मरुस्थलों में भी निरंतर आकार लेता है सजीव लोक। शमशान-सी फैली बर्फ़ीली घाटियाँ भी कविता के लिए एकदम से अनुपयोगी नही होती। जीवन होता है वहाँ भी कफ़न-सी सफ़ेद बर्फ़ानी चादर के अंदर सिकुड़ा और ठिठुरता हुआ। कुलबुलाते रंग-बिरंगे कीट-पतंगे न सही लेकिन सतह पर जमी बर्फ़ की पारभाषी परत के नीचे तरल में गुनगुनापन होड़ करता है जम जाने की निष्क्रियता के ख़िलाफ़। मछलियों के कोलाहल वहाँ भी भव्यता से मौजूद रहते हैं।

    जिसे बस चुटकी भर दुःख मिला हो 
    वह उस ज़रा से दुःख को तंबाकू की तरह
    लुत्फ़ बढ़ाने के लिए बार-बार फेंटता मसलता है
    जिसने असहनीय दुःख झेला हो वह टुकड़े भर सुख की स्मृतियों से
    अनंत शताब्दियों तक हो रही दुःख की बरसात रोकता है
    उस ग़रीब औरत की तरह जो जीवन भर शादी में मिली
    चंद पोशाकों से हर त्यौहार में अपनी ग़रीबी छिपाती है
    संतोष से अपना शौक़ शृंगार पूरा कर लेती है

    सब कहाँ हो पाते हैं छायादार पेड़ों के भी साथी
    कुछ उनकी छाल चीर कर उनमें डब्बे फँसा देते हैं
    जिसमे वे पेड़ों का रक्त जमा करते हैं
    दुनिया में दुख के तमाशाई ही नहीं होते 
    यहाँ पीड़ा के कुछ सौदागर भी होते हैं

    मैं प्रेम की राह पर संन्यासियों की तरह चलती हूँ
    जीवन की राह पर मृत्यु द्वारा न्योते गए अतिथि की तरह

    जिन गुफाओं में संग्रहीत पानी तक
    कभी रौशनी नहीं पहुँचती 
    वहाँ की मछलियों की आँखें नहीं होतीं
    ख़ूबसूरत जगहों में पैदा होने वाले कवि न भी हो पाएँ
    तब भी वे कविता से प्रेम कर बैठते हैं
    अगर वे कवि हो ही जाएँ
    तो दुनिया के सब बिंब उनकी कविता में 
    जंगल के चेहरों पर आने वाले अलग-अलग भावों के
    अनुवाद में बदल जाते हैं

    सोचती हूँ तुम्हारे मन के तल में जमा 
    काँच से पानी के वहाँ रखे नकार के पत्थरों में 
    क्या जमती होगी स्मृतियों की कोई हरी काई 

    मन के झिलमिलाते नमकीन सोते में हरापन कैसे क़ैद होगा
    आख़िर किस चोर दरवाज़े से आती होगी वहाँ सूरज की ताज़ी रौशनी
    जिसमें छलकती झिलमिलाती होंगी दबी इच्छाओं की चंचल मछलियाँ
    बियाबान में टपकती बूँदों की लय क्या कोई संगीत बुन पाती होगी

    नाज़ुक छुअन की सब स्मृतियाँ तरलता के चोर दरवाज़े हैं
    बीता प्रेम अगर तोड़ भी जाए तब भी उसकी झंकार 
    दूर तक पीछा करती है पुकारते और लुभाते हुए
    जैसे आप रस्ते पर आगे बढ़ जाएँ तब भी 
    इस आशा में कि शायद आप लौट ही पड़ें
    सड़क पर दुकान लगाए दुकानदार आपको आवाज़ देते रहते हैं

    धरती पर पड़ी शुष्क पपड़ी जैसे भंगुर होते हैं मन के निषेध-पत्र
    कोई हल्के नोक से चोट करे तो पपड़ी टूटकर 
    अंकुर बोने जितनी नमी की गुंजाइश मिल ही जाती है

    अगली बार झिलमिलाते जल के लिए
    कोई यात्री आपके पाषाण अवरोधों का ध्वंस करे
    तो यह मानना भी बुरा नहीं कि कुछ चोटें अच्छी भी होती है
    सूरज रौशनी के तेज़ सरकंडों से अँधेरे काटता है
    बादलों की लबालब थैली भी आख़िर 
    गर्म हवा का स्पर्श पाकर ही फटती है
    जो सभ्यताएँ मुरझा जाती हैं 
    उन्हें आँख मटकाते बंजारे सरगर्मियाँ बख़्शते है
    जंगलों की हरीतिमा अनावरण के 
    संकट के बावजूद किसी चित्रकार की राह देखती है 

    पत्थरों के अंदर बीज नहीं होते
    लेकिन अगर वे बारिश में भींग गए हों
    और वहाँ रोज़ धूप की जलन नहीं पहुँच रही हो
    तब वहाँ भी उग ही आती है काई की कोई हरीतिमा।

    दो

    डरना चाहिए ख़ुद से जब कोई बार–बार आपकी कविताओं में आने लगे 
    कोई अधकहे वाक्य पूरे अधिकार से पूरा करे, और वह सही हो
    यह चिह्न हैं कि किसी ने आपकी आत्मा में घुसपैठ कर ली है 
    अब आत्मा जो प्रतिक्रिया करेगी उसे प्रेम कह कर उम्र भर रोएँगे आप 
    प्रेम में चूँकि कोई आज तक हँसता नहीं रह सका है 

    आग जलती जाती है और निगलती जाती है 
    उस लट्ठे को जिससे उसका अस्तित्व है 
    उम्र बढ़ती जाती है और मिटाती जाती है
    उस देह को जिसके साथ वह जन्मी होती है 
    बारिश की बूँदे बादलों से बनकर झरती हैं 
    बदले में बादलों को ख़ाली कर देती हैं
    प्रेम बढ़ता है और पीड़ा देता है
    उन आत्माओं को जो उसके रचयिता होते हैं 

    एक सफ़ेदी वह होती है जो बर्फ़ानी लहर का रूप धर कर 
    सभी ज़िंदा चीज़ों को अपनी बर्फ़ीली क़ब्र में चिन जाती है
    जिस क्षण तुम्हारी उँगलियों में फँसी मेरी उँगलियाँ छूटीं 
    गीत गाती एक गौरय्या मेरे अंदर बर्फ़ीली क़ब्र में
    खुली चोंच ही दफ़न हो गई

    एक बार प्रेम जब आपको सबसे गहरे छूकर
    गुज़र जाता है आप फिर कभी वह नहीं हो पाते
    जो कि आप प्रेम होने से पहले के दिनों में थे

    हम दोनों स्मृतियों से बने आदमक़द ताबूत थे 
    हमारा ज़िंदापन शव की तरह उन ताबूतों के अंदर
    सफ़ेद पट्टियों में लिपटा पड़ा था
    अपने ही मन की पथरीली गलियों के भीतर 
    हमारी शापित आत्माएँ अदृश्य घूमा करती थीं 
    यह तो हल नहीं होता कि हम प्रेम के
    उन समयों को फिर से जी लेते
    हल यह था कि हम मरे ही न होते 
    लेकिन यह हल भी दुनिया में हमारे 
    न होने की तरह संभव नहीं था 

    जीवन की ज़्यादतियों से अवश होकर 
    प्रेम को मरते छोड़ देने का दुःख 
    इलाज के लिए धन जुटाने में नाकाम होकर 
    संबधी को मरते देखने के दुःख जैसा होता है

    दुःखों के दौर में जब पैर जवाब दे जाएँ 
    तो एक काम कीजिए धरती पर बैठ जाइए
    ज़मीं पर ऐसे रखिए अपनी हथेलियाँ
    जैसे कोई हृदय का स्पंदन पढ़ता है
    मिट्टी दुःख धारण कर लेती है
    बदले में वापस खड़े होने का साहस देती है

    इन दिनों मैं मुसलसल इच्छाओं और दुखों के बारे में सोचती हूँ
    उन बातों के होने की संभावना टटोलती हूँ, जो सचमुच कभी हो नहीं सकती

    मसलन, आग जो जला देती है सब कुछ
    क्या उसे नहाने की चाह नहीं होती होगी
    मछलियों को अपनी देह में धँसे काँटे
    क्या कभी चुभते भी होंगे
    जब प्यास लगती होगी समुद्र को
    कैसे पीता होगा वह अपना ही नमकीन पानी
    चंद्रमा को अगर मन हो जाए गुनगुने स्पर्श में
    बँध जाने का वह क्या करता होगा 
    सूरज को क्या चाँदनी की ठंडी छाँव की
    दरकार नहीं होती होगी कभी

    उसे देखती हूँ तो रौशनी के उस टुकड़े का 
    अकेलापन याद आता है
    जो टूट गए किवाड़ के पल्ले से
    बंद पड़ी अँधेरी कोठरी के फ़र्श पर गिरता है
    अपने उन साथियों से अलग
    जो पत्तों पर गिरकर उन्हें चटख रंगत देते हैं 
    इस रौशनी में हवा की वे बारीकियाँ भी नज़र आती हैं 
    जो झुंड में शामिल दूसरी रौशनियाँ नहीं दिखा पातीं
    ज़िंदगी की बारीकियों को बेहतर समझना हो 
    तो उन लोगों से बात कीजिए जो अक्सर अकेले रहते हों

    कभी-कभी मैं सोचती हूँ तो पाती हूँ कि
    अधूरे छूटे प्रेम की कथा पानी के उस हिस्से के
    तिलमिलाहट और दुख की कथा है
    जो चढ़े ज्वार के समय समुद्र से दूर लैगूनों में छूट जाता है 
    महज़ नज़र भर की दूरी से समुद्र के पानी को 
    अपलक देखता वह हर वक़्त कलपता रहता है
    तटबंधों के नियम से बँधा समुद्र चाहे तब भी 
    उस तक नहीं आ सकता, 
    वह समुद्र का ही छूटा हुआ एक हिस्सा है
    जो वापिस समुद्र तक नहीं जा सकता 
    प्रेम में ज्वार के बाद दुखों और अलगाव का 
    मौसम आना तय होता है 

    लगातार गतिशील रहना हमेशा गुण ही हो ज़रूरी नहीं है 
    पानी का तेज़ बहाव सिर्फ़ धरती का शृंगार बिगाड़ता है
    धरती के मन को भीतरी परतों तक रिस कर भिगो सके 
    इसके लिए पानी को एक जगह ठहरना पड़ता है
    बिना ठहरे आप या तो रेस लगा सकते हैं
    या हत्या कर सकते हैं, प्रेम नहीं कर सकते
    जल्दबाज़ी में जब पानी धरती की सतह से बहकर निकल जाता है
    वहाँ मौजूद स्वस्थ बीजों के उग पाने की 
    सब होनहारियाँ ज़ाया हो जाती हैं

    प्रेम के सबसे गाढ़े दौर में जो लोग अलग हो जाते हैं अचानक
    उनकी हँसी में उनकी आँखें कभी शामिल नहीं होतीं

    कुछ दुःख बहुत छोटे और नुकीले होते हैं, ढूँढ़ने से भी नहीं मिलते
    सिर्फ़ मन की आँखों में किरकिरी की तरह रह-रह कर चुभते रहते हैं
    न साफ़ देखने देते हैं, न आँखें बंद करने देते हैं

    नई कृति के लिए प्राप्त प्रशंसा से कलाकार 
    चार दिन भरा रहता है लबालब, पाँचवें दिन
    अपनी ही रचना को अवमानना की नज़र से देखता है 
    वे लोग भी ग़लत नहीं हैं जो प्रेम को कला कहते हैं

    सुंदरताओं की भी अपनी राजनीति होती है 
    सबसे ताक़तवर करुणा सबसे महीन सुंदरता के
    नष्ट होने पर उपजती है
    तभी तो तमाम कवि कविता को कालजयी बनाने के लिए 
    पक्षियों और हिरणों को मार देते हैं 
    ऐसे ही कुछ प्रेमी महान होने के 
    लोभ से आतंकित होकर प्रेम को मार देते हैं

    एक दिन मैंने अपने मन के किसी हिस्से में 
    शीत से जमे तुम्हारे नाम के हिज्जे किए
    दुःख के हिमखंड टूट कर आँखों के रास्ते
    चमकदार गर्म पानी बनकर बह चले 
    जब से हम-तुम अर्थों में साँस लेने लगे
    सुंदर शब्द आत्मा खोकर मरघटों में जा बैठे 

    स्मृतियों और मुझमें कभी नहीं बनी
    आधी उम्र तक मैं उन्हें मिटाती रही
    बाक़ी बची आधी उम्र में उन्होंने मुझे मिटाया

    मेरी कुछ इच्छाएँ अजीब भी थीं 
    मैं हवा जैसा होना चाहती थी तुम्हारे लिए
    तुम्हारी देह के रोम-रोम को
    सुंदर साज़ की तरह छूकर गुज़रना मेरी सबसे बड़ी इच्छा थी 
    मैं चाहती थी तुम वह घना पेड़ हो जाओ जिसकी पत्तियाँ
    मेरे छूने पर लहलहाते हुए, गीत गाएँ 

    मैं तुम्हारे मन की पथरीली-सी ज़मीन पर उगी 
    ज़िद्दी हरी घास का गुच्छा होना चाहती थी 
    जिसे अगर बल लगाकर उखाड़ा जाए तब भी 
    वह छोड़ जाए तुम्हारी आत्मा में
    स्मृतियों की चंद अनभरी ख़राशें

    लगातार घाव देने वाले प्रेम का टूटना 
    साथ चलते दुःख से राहत भी देता है
    देखी है आपने कभी दर्द से चीख़ते-कलपते 
    इंसान के चेहरे पर मौत से आई शांति
    असहनीय पीड़ा में प्राण निकल जाना भी
    दर्द से एक तरह की मुक्ति ही है

    इन दिनों सपने हिरन हो गए हैं 
    और जीवन थाह-थाह कर क़दम रखता हाथी

    एकांत में जलने के दृश्य
    भव्य और मार्मिक होते हैं
    गहन अँधेरे में बुर्ज़ तक जल रहे 
    अडिग खड़े क़िले की आग से
    अधिक अवसादी जंगलों का 
    दावानल भी नहीं होता।

    स्रोत :
    • रचनाकार : लवली गोस्वामी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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