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कवि का भजन

kavi ka bhajan

अनुवाद : रमेश कौशिक

पेन्चो स्लावेयकोव

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पेन्चो स्लावेयकोव

कवि का भजन

पेन्चो स्लावेयकोव

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    विदा लेने का जगत से और तुमसे

    अब समय तेज़ी से प्रिये है रहा

    शोकमय इतिहास मेरी ज़िंदगी की

    खिन्न कविता का, शीघ्र मिटने जा रहा।

    बहुत संभव, अपरिचित लोग कितने ही

    करते रहे जो प्यार, तब अर्पित करेंगे

    फूलमालाएँ मेरे शव पर कि जो

    ज़िंदगी में कुछ मुझको दे सके थे।

    दुर्भाग्य, निर्वासन, उदासी में प्रिये

    सिर्फ़ तुम मेरी ख़ुशी बनकर रही हो

    अतः विनती है कि जब वे यहाँ आएँ

    बंद रखना द्वार उन जीवित शवों को।

    ताकि ठंडी देह मेरी पर झूठे अश्रु

    वे बहा पाएँ बड़ी निर्लज्जता से

    पुरखों की तरह करते हुए गुणगान—

    'त्याग कर जीवन, जुड़ा यह अमरता से'।

    अंत जीवन-यात्रा का श्रेष्ठ हो प्रिये

    छोड़ना मुझको औरों के भरोसे

    वे दबा देंगे मुझे श्मशान में जा

    शोक में डूबी जहाँ पर आत्माएँ।

    उस पहाड़ी पर जहाँ पर मैं तुम्हारे

    और मित्रों साथ करता बात आया

    सहजता से तुम वहाँ निर्देश देना

    राज को, मेरी समाधि की शिला का।

    भूल मत जाना कि मेरे दृगों ने

    देखा धरती को, निहारा है गगन

    इसलिए मुझको दफ़नाना, खुले में

    ऊँची समाधि हो करूँ जिसमें शयन।

    ओस भीगी प्रात में तुम छोड़ आना

    उस जगह, लार्क मेरी आत्मा-सा

    उड़ रहा हो औ' हवाएँ घूमती हों

    उसके सुरीले सुरों के संग में जहाँ।

    संगमरमर पर लिटा देना मुझे तुम

    ना, अश्रु आहों से व्यथित कोई करे

    किंतु तारा भोर का नीले गगन का

    स्नेह-किरणों से प्रिये सहला सके।

    और मेरी दृष्टि हो मुक्त सपने में

    सोच पाए क्रिया अस्तित्व की गोपन

    दूर होकर भी दिवस की इस उमस से

    देखें जगत के दृश्य सब मेरे नयन।

    देखूँ खुले मैदान की मैं धूप को

    फ़ैक्ट्री का द्वार, हलचल सुबह की

    विश्रांत तारक रात, जब पंख फैला

    प्रार्थी हो, सुनूँ मैं स्वर लहर उसकी।

    ओह शायद तभी, शायद तभी सुन पाऊँ

    इन विशद दृश्यों की पुनीता शांति में

    वह विलक्षण नाद, जिसकी कामना की

    क्योंकि कोलाहल से रहा हूँ त्रस्त मैं।

    शायद सुनूँ, आत्मा जीवंत जिससे

    शायद सुनूँ, मुदित भू जो स्वर उठाती

    हो रहे लय गगन की गहराइयों में

    उस महा संगीत को जो सृष्टि गाती।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बल्गारियाई कविताएँ (पृष्ठ 27)
    • संपादक : रमेश कौशिक
    • रचनाकार : पेन्चो स्लावेयकोव
    • प्रकाशन : पराग प्रकाशन
    • संस्करण : 1985

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