पिता का न होना

pita ka na hona

मंजुला बिष्ट

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पिता का न होना

मंजुला बिष्ट

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    एक

    भाग्य में पिता का न होना
    दरअसल, माँ का भी कम होते जाना है...

    माँ.. माँ नहीं रह पाती है
    पिता-सी बनने की कोशिशों में 
    कुछ अलग हो जाती है!
    एकाएक कठोर-दंड देती हुई
    अबोला निर्णय सुनाती हुई
    कभी-कभी तो स्वयं को भी अवाक् करती हुई :
    'मैं माँ ही रही... पिता न बन सकी!'

    मेरे पितृविहीन संसार में माँ का होना 
    स्वयं को उस कंगली दुनिया के एक सुरक्षित छोर में पाना था;
    जहाँ, मुझे बस उतनी ही ठौर हासिल थी
    जितना मनपसंद कीचड़ न मिलने पर
    मैंने कभी पैरों के पंजे टिकाने भर की जगह खोजी थी

    माँ का होना तो सबने देखा था
    लेकिन, उसका पिता बनना
    अब मुझे सुनाई देता है... अक्सर!
    समझ आया है... बहुत देर से!
    घुप्प रिक्तता भरता है... हर बार!

    दो

    बाईस की वय में पति को खो चुकी माँ...
    पिता की कृपण स्मृतियाँ मुझे सौंपती माँ...
    पिता को संवर्द्धित क़िस्सों में याद करती हुई माँ...
    न जाने नियमित कितना ख़र्च हो रही थी
    बिन कोई नाग़ा किए...
    मुझे यह संकोचशील कौतुक बना रहा!

    गणना हेतु कनखियों से
    उनकी दिनबदिन सिकुड़ती देह देखती रही
    जहाँ अतीत की धड़कनों और वर्तमान की 
    साँसों का अंतर स्पष्ट अंकित था

    शायद वह बच रही थी
    पितातुल्य पहाड़ बनने में,
    कुछ टूट भी रही थी
    त्वरित घटित होते उस सामर्थ्यहीन परकाया प्रवेश में!

    माँ ने कितना बचा लिया होगा
    स्वयं को संपूर्ण... स्वयं के लिए ही!

    संभवतः उतना ही,
    जितना उन कृपण क़िस्सों के मध्यांतर में
    वह ले पाई थी कुछ विराम...
    दीर्घ-शीतल उच्छ्वासों की शक्ल में!

    तीन

    जन्म के पंद्रह माह
    बाद मिले पितृ-शोक को
    कुछ इस तरह जाना-समझा है मैंने

    मेरे मेरूदंड में
    जितना भी आदिम शोक वृद्धिरत है,
    अवरुद्ध कंठ में
    मौनालाप के जितने भी सैकड़ों अभ्यास हैं

    काँपती जिह्वा में
    अचानक चीख़ पड़ने के जितने भी प्रयास हैं,
    इस जीवित क्षण तक
    गिरने-उठने के जितने भी निर्लज्ज बालहठ हैं,
    मेरी जीवन-पत्री में
    जितनी भी उपेक्षाएँ और अपमान दर्ज हैं...

    वे सब पिता की
    क्षणिक स्मृतियों की सुदीर्घ भरपाई है
    विस्मृतियों को बचा लेने की पवित्र गोपनीयता है।

    चार

    उसकी पीड़ाओं की घनघोर उपेक्षा हुई
    क्योंकि पिता नहीं थे
    वह भी अपनी पीड़ाएँ छिपाता रहा
    पिता से;
    क्योंकि पिता को पीड़ाओं के
    सार्वजनिक हो जाने से कमज़ोर सिद्ध होने का 
    अथाह भय था

    वे दोनों कभी जान ही न पाए कि
    वे एक ही सिक्के के दो पहलू थे

    जहाँ, पीड़ाओं की मुद्राएँ
    तटस्थ होने की ज़िद में
    अधिक सघन और निर्मम होती चली गई
    लेकिन... केंद्र में पिता की अनुपस्थिति ही मुख्य थी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मंजुला बिष्ट
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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