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'पीसा' की साँझ

pisa ki saanjh

अनुवाद : यतेन्द्र कुमार

पर्सी बिश शेली

अन्य

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पर्सी बिश शेली

'पीसा' की साँझ

पर्सी बिश शेली

और अधिकपर्सी बिश शेली

    (1)

    दिवसावसान है; विहग शयन को होते आतुर,

    श्वेत पवन में, द्रुत गति से चमगीदड़ पाँतें होती हैं लय।

    सरक रहे गीले कोनों से, बाहर मंद नरम से दादुर,

    और साँझ की साँस विचरती, इधर-उधर फिरती है निर्भय,

    घूम रही है निर्झर के चंचल-जल-तल पर मंथर गति से!

    पर जगातीं एर्क उर्मि को भी निज ग्रीष्म-स्वप्न की रति से।

    (2)

    आज ने हरियाले तृणदल पर एक तुहिन-कम,

    बची नहीं सीलन तरुओं की कहीं छाँह में।

    हल्का, शुष्क, और यह स्पंदनहीन प्रभंजन,

    बिखराता फिरता धर कर अपने प्रवाह में।

    रज के कण, सूखे तिनके, वह मंद समीरण,

    भँवराता नगरी के पथ पर करता विचरण।

    (3)

    तीव्र प्रवाहित सरिता की उस नीर-सतह पर,

    सोया पड़ा हुआ है बिंब नगर का लहरिल।

    है अशांत यह, बँधा हुआ है एक जगह पर,

    चिरकंपित है, पर है अक्षय, आभा झिलमिल।

    देखो जाकर वहाँ...

    तुम होकर परिवर्तित ऐसा ही पाओगे!

    (4)

    बंद हुआ वह गर्त्त, मग्न है जिसमें दिनकर,

    भस्मिल-घन की घनतम प्राचीरों से आवृत्त।

    ठँसा पड़ा हो ज्यों पर्वत-पर्वत के ऊपर,

    पर उगता, बढ़ता, संकुल की ओर प्रवर्तित।

    और नीर-सी-नाली जगह हुई हो उस पर,

    शुभ्र साँझ-तारिका चमकती जिसमें होकर!

    स्रोत :
    • पुस्तक : शेली
    • संपादक : यतेन्द्र कुमार
    • रचनाकार : पर्सी बिश शेली
    • प्रकाशन : भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़

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