Font by Mehr Nastaliq Web

पिंजरे में प्यारी लगती हो

pinjre mein pyari lagti ho

श्रेया शिवमूर्ति

श्रेया शिवमूर्ति

पिंजरे में प्यारी लगती हो

श्रेया शिवमूर्ति

और अधिकश्रेया शिवमूर्ति

    निकलो उजली गलियों में,

    अँधेरी गलियों में गुमनाम रहो।

    फैलाओ पर अपने तुम,

    हाँ जंज़ीरों में तुम सजती हो।

    पिंजरे में प्यारी लगती हो॥

    चौखट के भीतर पाँव रहे

    आवाज़ तुम्हारी मुझसे दबी रहे

    बेफ्रिक रहो घर-आँगन में,

    सड़कों पर हम पर भारी लगती हो।

    पिंजरे में प्यारी लगती हो॥

    खुले आसमाँ में क्या रखा है?

    तुम रुको, हम ख़ुद दाना लेकर आएँगें।

    चुपचाप उन्हें चुगना और मेरी बातें सुनना,

    हाँ मुझको तुम मेरी ज़िम्मेदारी लगती हो।

    पिंजरे में प्यारी लगती हो॥

    हो कहाँ घूमती सड़कों पर,

    क्यों चौक पे धरने करती हो?

    तुमको जागीर-सा सहेजे रखना है,

    नारे लगाती हो तो चिंगारी लगती हो।

    पिंजरे में प्यारी लगती हो॥

    मेरा पौरुष कम नहीं मगर फिर भी

    अबला कह कर तुमको क्षीण किया।

    बाहर निकलोगी तो कहूँगा चरित्रहीन,

    हाँ, मैंने समाज संकीर्ण किया।

    जब-जब सहती हो मेरी बेरहमी,

    सच कहूँ बड़ी संस्कारी लगती हो

    पिंजरे में प्यारी लगती हो।

    मुझसे टकराना छोड़ भी दो,

    क्यों जीत की उम्मीदों में रहती हो?

    हम जीते या जीते पर तुम

    हर बार हार को सहती हो।

    पिंजरे में प्यारी लगती हो॥

    क्या कर लोगी, कहकर कुछ अपने मन की अपने,

    क्यों साहसी होने का दंभ तुम भरती हो?

    हाँ कैद रहो और कुछ कहो,

    चुपचाप हो तो अपनी-सी लगती हो।

    पिंजरे में प्यारी लगती हो॥

    जब तेज़ करो आवाज़ अपनी,

    आवाक् हूँ, क्यों तुम अधिकारी लगती हो।

    क्यों ख़ुद नहीं समझती भला अपना,

    कमज़ोर हो फिर भी लड़ती रहती हो।

    पिंजरे में प्यारी लगती हो॥

    होंगे फसाद तो रोओगी,

    जो कुछ है पास वो खोओगी।

    तुम साज-सजावज हो घर की

    क्यों दहलीज़ से बाहर पाँव को धरती हो।

    पिंजरे में प्यारी लगती हो॥

    कल भी हम तुमसे आगे थे,

    कल और भी आगे होंगे हम।

    चुपचाप साथ देना मेरा,

    मेरी हर कामयाबी के पीछे तुम ही तो रहती हो।

    कि तुम्हारे बिना कुछ नहीं हूँ मैं, पर मानूँ

    तो तुम अवतारी लगती हो।

    पिंजरे में प्यारी लगती हो॥

    हाँ घर-बच्चे, चूल्हा-बर्तन,

    महकाओ मेरा घर-आँगन।

    क्यों अपनी आज़ादी की,

    तैयारी में हरपल रहती हो

    अँधेरी गलियों में गुमनाम रहो,

    हाँ जंज़ीरों में तुम सजती हो।

    पिंजरे में प्यारी लगती हो॥

    स्रोत :
    • रचनाकार : श्रेया शिवमूर्ति
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY