फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन
पलकों के पलने पर प्रेयसि
यदि क्षण भर तुम्हें झुला न सका
विश्रांत तुम्हारी गोदी में
अपना सुख-दुःख भुला न सका
क्यों तुममें इतना आकर्षण, क्यों कनक वलय की खनन-खनन
फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन
आहों से शोले, नयनों से
निकली यदि चिनगारी न प्रखर
अधरों में भर असीम तृष्णा
यदि पी न सका अहरह सागर
लेकर इतनी वेदना व्यथा, किस योग मिला फिर यह यौवन
फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन
अपने क्रंदन को निर्बल के
रोदन में अगर मिला न सका
हाहाकारी चीत्कारों से
प्रस्तर उर हाय हिला न सका
बन मन की मुखरित आकांक्षा, किस अर्थ मिला फिर चिर-क्रंदन
फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन
निश्वासों की तापों से यदि
शोषक हिमदुर्ग गला न सका
उर उच्छ्वासों की लपटों से
सोने के महल जला न सका
क्यों भाव प्रबल, क्यों स्वर लयमय, किस काम हमारा यह गायन
फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन
यदि निपट निरीहों का संबल
बनने की तुझमें शक्ति न थी
यदि मानव बन मानवता के
हित मिटने की अनुरक्ति न थी
क्यों आह कर उठा था उस दिन, क्यों बिखर पड़े थे कुछ जलकण
फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन
अग्नि-स्फुलिंग-मय वाणी से
पल पल पावक कण फूँक-फूँक
यदि कर न सका परवशता की
यह लौह शृंखला टूट-टूक
क्यों बलिदानी इतना आतुर, क्यों आज बेड़ियों की झनझन
फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन
यदि अटल साधना के बल पर
कर पाया विष मधुपेय नहीं
यदि आत्म-विसर्जन कर तुममें
पाया अपना चिर-ध्येय नहीं
क्यों जग-जग में परिवर्तन मिस, बनता मिटता रहता कण-कण
फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन।
- पुस्तक : स्वतंत्रता पुकारती (पृष्ठ 301)
- संपादक : नंदकिशोर नवल
- रचनाकार : शिवमंगल सिंह सुमन
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2006
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