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पत्थर इतिहास

patthar itihas

प्रेमा झा

प्रेमा झा

पत्थर इतिहास

प्रेमा झा

और अधिकप्रेमा झा

    उसने मुझे घर, दीवार, कपड़े की तरह समझा

    एक मौसम गुजारकर जिसे

    बदल दिया जाए

    ईंट-पत्थर, धूल-मिट्टी की मानिंद

    जिसमें कुछ पुर्ज़े फाड़कर

    दबा दिए जाए/

    मैं तो मौसम का फूल थी

    जिसे मिट्टी में दबकर

    दोबारा जन्म लेना था

    मैं ककनूस सरीख़ी थी

    राख़ से पैदा होने की महारत हासिल थी

    उसने मुझे समझने में ग़लती कर दी

    और मैं बहती हवाओं में

    उड़ते रेत कणों से

    उसका नाम लिखती रही, मिटाती रही

    मैंने हिम्मत नहीं हारी

    चक्रवात की तरह घूमती-घूमती

    पत्थरों के शहर पहुँची

    जहाँ कुछ भी करना शिलालेखों पर लिखने जैसा था

    काँपते हाथों से मैंने

    एक पत्थर उठाया

    और

    जमा दिया मिट्टी पर

    इस तरह मेरा घर बन गया

    मैं घर में रहने लगी

    देखा बाहर बारिश हो रही थी

    मिट्टी और रेत पर

    लिखा उसका नाम

    बहकर पूरे पत्थर शहर में फ़ैल गया

    पत्थर धूल-कणों से लिपटा हुआ

    एक पूर्ण विरोधाभाषी काया में बदल गया था

    ये, वो नहीं था

    जो वो था

    और जो वो अब है

    भीतर पत्थर था—

    ऊपर मिट्टी-जैसा

    मैंने कला का परिचय दिया

    और मिट्टी पर आदम शक्ल उगा दिए

    अब वो, वो है

    जिसे मैंने चाहा

    पर वो अब भी भीतर से पत्थर है

    पत्थर पर मैंने

    एक और नया शब्द लिखा,

    ‘इतिहास’

    जो याद किया जाएगा

    और पत्थर

    इसमें एक अहम किरदार निभाएगा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रेमा झा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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