पर्ची मेरी पहचान की

parchi meri pahchan ki

अनूप सेठी

अनूप सेठी

पर्ची मेरी पहचान की

अनूप सेठी

और अधिकअनूप सेठी

    आईने में ही देख लिया था उसने पीछे से आते हुए

    आइए बैठ जाइए

    लपक लिया मैं ऑटो में

    धन्यवाद देते और पुलकित होते हुए

    ऑटो वाला भी पहचानने लगा है

    यह कौन-सा गाँव है महानगर में

    डरता रहा रास्ते भर

    जिस तरह ये हवा में उड़ रहा है

    अगर पहचान लिया हो कोई और समझकर

    गिरूँगा मैं बीच सड़क चूर-चूर आईने की तरह

    जब मुड़ गया वह आख़िरी गली में सही मोड़ पर

    तब उड़ने लगा मैं

    अपनी पहचान को याद कर-कर उसके आईने में

    जब शुरू हो गया इस ख़ुशनुमा सुबह के बाद दफ़्तर का काम

    बॉस ने दरयाफ़्त किया बदस्तूर

    जिसे बताना पड़ा अपना सही नाम साल में बीसवीं बार

    इस भाव-विहीन निर्विकार महान पाषाण पिंड को करते हुए सहस्र प्रणाम

    छूटा पिंड जब घिर चुका था अँधेरा

    बकरियों की तरह बिलबिलाते भागे सब बाबू

    दिन भर की उकताहट के बाद

    मिल गया वही बस कंडक्टर

    जो आँख मिलते ही मुस्कुराता है

    पूछता नहीं है अब

    कहाँ तक यह बाबू रोज़ जाता है

    काटता है थमा देता है टिकट एक सनद की तरह

    मेरे दिल के पास पड़ी है मेरी जेब में

    पर्ची मेरी पहचान की।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनूप सेठी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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