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पालकी

palki

अनुवाद : हनुमच्छास्त्री अयाचित

मेरे लिए पालकी भेजी प्रियतम ने ही,

यह सुनकर सिहर उठा है विक्षुब्ध हृदय झंकृत हुई तंत्रियाँ बजकर

चिर वियोग पीड़ित शुष्क देह नव पल्लव का तोरण बनकर

नव पुष्पों की माला बनकर हुई सुगंधित शोभित सुंदर

कंपित कर को साथ किसी विध मेघ-वसन पहने हुए

दिनकर की किरणों से रंजित गहने दमके नए-नए

जाने यह सुख प्रेमिल है या है फिर ज्वाला का आधार

बहन नहीं कर सकता हूँ मैं उठते हैं जो इतने ज्वार

मंदगमन से झूलती हुई मैं फूलों की माला जाकर

बैठ गई पुष्प पालकी में, चले कहार “ओ हो हो कहकर

गाँव के गाँव लगे देखने सब खड़े होकर मार्गोपांत

मार्ग बाग का जागा, उछली नहर नींद से उसके उपांत

अमर प्रेम की कनक बेलि सी वासंती पुष्पों का हार,

इंद्रधनुष की टेढ़ी रेखा मधुर स्वप्न की शाखा,

चली पालकी जैसे चलती है अविरल सरिता की धार

'हे पालकी! हो पालकी! हे पालकी!’ का मधुर झंकार।

स्रोत :
  • पुस्तक : आधुनिक तेलुगु कविता प्रथम भाग (पृष्ठ 134)
  • संपादक : चावलि सूर्यनारायण मूर्ति
  • रचनाकार : देवुलपल्लि कृष्णशास्त्री
  • प्रकाशन : आंध्र प्रदेश साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 1969

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