‘गुमनामियाँ’

‘gumnamiyan’

बबली गुज्जर

बबली गुज्जर

‘गुमनामियाँ’

बबली गुज्जर

और अधिकबबली गुज्जर

    कई दिनों तक ख़ुद को

    पाती हूँ इतना भीतर तक ख़ाली

    महीनों तक सोचती हूँ लिख पाती

    कम से कम एक संपूर्ण पंक्ति ही,

    जीने की जद्दोजहद में गुप्त रखती हूँ

    मन के भीतर का ऐसा तूफ़ानी मौसम

    दरकिनार रखती हूँ साँस लेना तक भी

    किसी दिन एक ज़रूरी काम करते-करते

    भीग जाती हूँ तुम्हारी याद की ओस से

    तरबतर हो जाता है तन बदन रेज़ा-रेज़ा,

    यह नमी बारिश की बूँदों सी नहीं बरसती

    जिससे किसी तरकीब द्वारा बचा जा सके

    याद आते है ख़त की आख़िरी पंक्ति के शब्द

    “तेरे बिना मर जाऊँगी सोणेया, आके मैनु लेजा”

    यह दुःख मेरी पीठ पर किसी पहाड़ सा गिरता है

    और हफ़्तों तपाता है मुझे ज्वर ताप बनकर

    यह याद एक प्रकृतिक घटना है,

    सरल किसी नवजात के आँख खोलने सी

    सहज किसी बालक के गिरते ही माँ बोलने सी

    बैठी रहती हूँ घंटों बालकनी की दिवार सहारे

    और उदासी से लिपट हो जाती है अजीब कैफ़ियत

    जिसका सारा इल्ज़ाम मैं सदा से ही अपने

    अति संवेदनशील होने को देकर करती रही हूँ तुम्हें मुक्त

    क्या मेरी ज़िंदगी उन तमाम सुनहरी लम्हों को

    आजीवन याद कर-कर रोने में बीत जाएगी

    तेरी दी हुई उदासी भी इतनी ख़ूबसूरत है

    रुलाएगी तो भी आँखें मीठे आँसु बहाएगी

    एक चारदीवारी में रहने वाली लड़की के लिए

    एक दिन बन गए थे तुम पूरी की पूरी दुनिया

    मैं जानती थी अपने शहर के सारे रास्ते वैसे

    बावजूद तेरे साथ भटकती थी तंग गलियाँ

    सोचती हूँ निकल जाऊँ किसी दिन घर से बाहर

    जिसमें बसते हो तुम और तुम्हारी याद मुझसे ज़्यादा

    लौटकर कभी वापस ना इस घर आऊँ

    यही मेरी नियति है और यही इच्छा भी

    कि मैं अपनी इन्हीं बेताबियों के साथ जिऊँ

    और इन्हीं गुमनामियों के साथ ही मर जाऊँ

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