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नदी

nadi

शरद बिलाैरे

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और अधिकशरद बिलाैरे

     

    एक

    मैं बहुत डर गया था नदी के मौन से
    नदी को इतना ख़ामोश
    पहले कभी नहीं देखा
    पत्थर फेंकने पर भी
    कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।

    माँ ने कल से कुछ भी नहीं खाया है।

    मैं बूढ़े मछुआरे से पूछता हूँ
    काका
    क्या कोई निदान है
    नदी की ख़ामोशी दूर करने का।

    बूढ़ा कहता है
    बेटा नदी का मौन बहुत ख़तरनाक होता है
    गाँव के गाँव लील जाती है इसकी चुप्पी
    इसे तोड़ने के लिए
    यज्ञ करना होता है
    नर बलि देनी होती है।

    मैं रात सपने में देखता हूँ
    मेरे माथे पर सिंदूर का टीका खिंचा है
    और माँ की थाली में
    रोटी रखी है।

    दो

    बहाव की हल्की-सी संभावना दिखाई दी
    और देखते-देखते वहाँ
    एक भरी-पूरी नदी थी।

    नदी
    कितने संघर्ष किए हैं मैंने
    तुम्हें गति देने के लिए
    पर तुम्हें बहते देख कर लगता है
    कि मैं तो निमित्त-मात्र था
    तुम तो स्वयं ही गति थीं।

    तुम नदी थीं
    तुम्हें लगातार बहते जाना था
    ढाल की तरफ़ से मुड़ते हुए
    ज़मीन पर चलते-चलते
    मैं कितनी दूर तुम्हारा साथ दे सकता था।

    तुम पहली बार
    उन ईंटों को बहाती हुई मुड़ीं
    जो मैंने
    अपना घर बनाने के लिए रखी थीं
    और फिर मुड़ती चली गईं
    ढाल के साथ-साथ
    मैदान में पहुँचकर
    धरती के गर्भ में समा गईं।

    मेरे भगीरथ प्रयत्नों को देखकर
    शायद तुमने स्वयं को
    गंगा समझ लिया था।

    आओ मेरे प्यार
    हम एक बार फिर से उद्गम तक लौट चलें।
    अबकी बार मैं तुम्हें
    हर ढलान पर खड़ा मिलूँगा
    तुम्हारे साथ बह जाने के लिए।

    अभी भी तुम्हारी आँखों को देखकर
    लगता है
    कि कभी वहाँ नदी रही होगी
    मेरे भगीरथ प्रयत्नों की
    भरी-पूरी नदी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तय तो यही हुआ था (पृष्ठ 38)
    • रचनाकार : शरद बिलौरे
    • प्रकाशन : परिमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1982

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