अब तक मेरे दिल में सारा ग़ुस्सा इस तरह छिपा रहता था
जैसे सेब के बीचोबीच गहरे भूरे रंग के बीज छिपे रहते हैं
और मैं जानता था कि मेरे पीछे-पीछे हाथ में तलवार लिए एक
फ़रिश्ता चलता है
जो मुसीबत के वक़्त मेरी हिफ़ाज़त करता है, मुझे बचाता है।
लेकिन किसी बीहड़ दिन तुम सुबह उठो और पाओ
कि सब कुछ बर्बाद हो चुका है और तुम भूत की तरह निकल जाते हो
अपनी जो थोड़ी बहुत चीजें थीं उन्हें छोड़कर, क़रीब-क़रीब नंगे,
तो तुम्हारे ख़ूबसूरत दिल में, जो अब हल्का हो चुका है,
एक वयस्क नम्रता जागने लगती है, संजीदा, संकोची
और अगर तब तुम कहोगे विद्रोही तो दूसरों के लिए कहोगे और वैसा
निस्वार्थ करोगे
और यह एक ऐसे मुक्त भविष्य की आशा में कहोगे जो दूर से ही
दमक रहा है।
मेरे पास कभी कुछ नहीं था और न आगे कभी होगा
जाओ और ज़रा एक लम्हे के लिए मेरी ज़िंदगी की इस दौलत पर
विचार करो
मेरे दिल में कोई ग़ुस्सा नहीं है, बदले की मुझे परवाह नहीं
यह दुनिया फिर से बनाई जाएगी—मेरी कविताओं पर रोक लगने दो
मेरी आवाज़ हर नई दीवार की नींव के पास सुनी जाएगी
अपने में मैं वह सब कुछ जी रहा हूँ जो बाक़ी दिनों में मुझ पर होगा
मैं पीछे मुड़कर नहीं देखूँगा क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं किसी भी तरह
नहीं बचता न मुझे कोई याद बचाएगी न कोई जादू—मेरे ऊपर का
आसमान मनहूस है
अगर तुम मुझे कहीं देखो दोस्त तो कंधे झटक देना और मुड़ जाना
जहाँ पहले तलवार लिए एक फ़रिश्ता था
वहाँ शायद अब कोई नहीं है।
- पुस्तक : प्यास से मरती एक नदी (पृष्ठ 221)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : मिक्लोश राद्नोती
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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