मुहब्बत से हूँ
muhabbat se hoon
मैंने सोचा पुराने किसी वरक़ पर
इश्क़ लिक्खूँ—‘नया इश्क़’ लिक्खूँ
और कलम मुझसे पूछे बिना ही
काग़ज़ के दिल पर रक़्स करने लगा
हिज़्र, अश्क़ और बदनामियाँ लिखने लगा
मैंने बदला वरक़, फिर से स्याही भरी
रंग तब्दील शब्दों के होने लगे
और फिर यूँ हुआ
वस्ल और चुंबन के हर वाक्य पर
यह क़लम
ढीठ, ज़िद्दी अकड़कर खड़ा हो गया
मैंने चाहा कि कविता मुकम्मल करूँ
दूसरे इश्क़ का कुछ फ़साना लिखूँ
यह क़लम कितना गुस्ताख़ है!
लिख दिया इसने पूरा का पूरा ‘इश्क़-शहर’
यहाँ हिज़्र की भोगते हैं सज़ा इश्क़ज़ादे सभी
वक़्त की जेल में
नज़्म तेरी ज़मानत मिले आज अगर
तो लिख दूँ
चाँद पूरा और आधी शब
और मय सेभरी चंद रूबाइयाँ
अभी इश्क़ परवान चढ़ने को है
सुनो, मैंने तहकर के रक्खा हुआ है अभी
पुराना तुम्हारा रूमाल छूटा हुआ
वो बातें अधूरी जो थीं रह गई
उसके आगे कहानी में लिखूँगी मैं
रौशनाई के रंग बदलते हुए सारे क़िस्से
मैं एक बार फिर से मुहब्बत के हमराह नाज़िल हुई हूँ
मेरे इश्क़ की मुक़द्द्स किताब
सहीफ़े की सूरत पढ़ी जाएगी
जो कुछ भी मुहब्बत में तेरी लिखा है
वो सब आयतें बनके महका करेंगी
घटा बन के ये मौसमे-हिज़्र में ख़ूब बरसा करेंगी
इश्क़ और ख़ुदा में न कुछ फ़र्क़ होगा
न मंदिर, न मस्जिद, न होगा कलीसा
न नफ़रत, न दिल में हसद का सबब कुछ
सियासत न मज़हब,
फ़क़त दिल मुहब्बत से लबरेज़ होगा
वही आशिक़ों का मुहब्बत-कदा भी बनेगा
और इश्क़ की सब नमाज़ें
भरोसे की छत पर पढ़ी जाएँगी
मैं सुरीली अज़ाँ सुन रही हूँ
मुझे जाने दो
मेरा यार आया है!
बरी कर दो मुझे
मैं मुहब्बत से हूँ
पिछली शब ख़्वाब में बावुज़ू
पाक़ उसने किया है मुझे!
- रचनाकार : प्रेमा झा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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