मुगलसराय

mugalasray

कौशल किशोर

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मुगलसराय

कौशल किशोर

और अधिककौशल किशोर

    वह अपने साथ के मुसाफ़िरों से पूछ रहा था

    कब आएगा मुगलसराय?

    लोग बताते कि अब वह नहीं आएगा

    अगला स्टेशन है पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन

    लोग कहते कि तुम वहीं उतरना

    क्यों नहीं आएगा?

    कहीं ग़लत ट्रेन में तो नहीं बैठ गया?

    कई सवाल थे

    उसका मन उधेड़बुन में फँसा था

    लोगों की बातें पतियाने वाली नहीं थी

    वह फिर-फिर पूछता

    और बार-बार उसे यही जवाब मिलता

    वह झुँझला उठता

    कई बरस बाद वह लौट रहा था

    उसके गाँव का रास्ता मुगलसराय होकर जाता था

    कहीं जाना हो, कहीं से आना हो

    मुगलसराय होकर ही उसे जाना और आना पड़ता था

    उसे इस नाम से नेह-छोह हो गया था

    वह सोचता कि नहीं होता मुगलसराय

    तो क्या अपने गाँव से निकल पाता

    रोटी कमाने क्या पंजाब पहुँच पाता

    ऐसे ही उसके मन में बसा था मुगलसराय

    उसके लिए दुनिया से जुड़ने का नाम था मुगलसराय

    वह पंजाब से लौट रहा था

    और झुँझला रहा था

    वह नहीं समझ पा रहा था

    कि लोग उसे क्यों भटका रहे हैं?

    उनकी बातों से बुझ गया था उसका चेहरा

    जैसे-जैसे ट्रेन बढ़ रही थी

    मुगलसराय के क़रीब पहुँच रही थी

    उसके मन-मस्तिष्क में बसी स्मृतियाँ भी लौट रही थीं

    उसके नथूनों में अपनी माटी की गंध भर रही थी

    मन के दीए की लौ जो टिमटिमा रही थी

    लगा कि बुझ जाएगी

    पर जब ट्रेन स्टेशन पर रुकी

    उसे आक्सीजन मिला

    लौ पूरी तरह जल उठी

    बच्चों को जैसे उनका खोया खिलौना मिल जाए

    वैसा ही उसका चेहरा खिल उठा

    ख़ुशी से उसके मुँह से फूट पड़ा—

    यही तो है मुगलसराय

    फिर भी साथ के सफ़र करने वाले कह रहे थे

    यह पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन है

    पर वह उनकी कुछ भी सुनना नहीं चाहता था

    उसने सुना भी नहीं

    वह जिसे पाना चाहता था उसे मिल गया था

    मुगलसराय उसके भीतर कहीं गहरे समाया था।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कौशल किशोर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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