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उन सुनहरे दिनों की ही तरह आज फिर

तीन मैली ब्रीच-पट्टियाँ घोड़ों की पीठों को रगड़ रही हैं

और रंगीन पहिए

दलदल में फँस गए हैं।

रूस

ग़रीबी के मारे रूस

तुम्हारी बदरंग झोंपड़ियाँ

तुम्हारे गूँजते गीत

मुझे प्यार के पहले आँसुओं-जैसे लगते हैं।

नहीं, मैं तुम पर तरस नहीं खाऊँगा...

और अपना क्रूस होशियारी से ढोऊँगा...

तुम अपना जंगली सौंदर्य

चाहे जिस जादूगर को दे दो!

वह तुम्हें चाहे जितना बहकाए, चाहे जितना छले—

तुम मिटोगे नहीं, ग़ायब होओगे,

बस चिंता तुम्हारे सुंदर मुखड़े पर

बादल बनकर छाई रहेगी...

पर उससे क्या? एक चिंता और सही

धारा में एक आँसू और सही

तुम जैसे थे वैसे ही रहोगे—

वैसे ही वन, वैसे ही खेत

और वैसा ही बड़ा कढ़ाईदार स्कार्फ़

भौंहों तक बँधा हुआ...

और लो, असंभव भी संभव होता है

एक लंबा रास्ता आसान बन जाता है

जब दूर उस रास्ते पर अचानक

स्कार्फ़ के नीचे से एक नज़र झाँक उठती है

और कोचवान का अनमना गीत

जेल-जैसी उदासी से भर जाता है!

स्रोत :
  • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 37)
  • संपादक : नामवर सिंह
  • रचनाकार : अलेक्सांद्र ब्लोक
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  • संस्करण : 1978

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