ये कुएँ में कूद जाने या कविता पढ़ने के दिन नहीं हैं माँ
वह मेरे होने की हर जगह है
ज़मीन, सपनों, भीड़-भड़क्के और पिस जाने में
और जहाँ मैं नहीं,
वह वहाँ कहीं नहीं है।
वह शोर के बीच मुझे सन्नाटे के रंग में ढूँढ़ती हुई,
वह सब त्रासदियों के बीच से मुझे रबड़ लेकर मिटाती हुई,
वह मेरे हर अपमान पर रखती हुई अपना माथा,
मेरी हर उपलब्धि पर से छिपाती हुई अपनी अपढ़ सादी पहचान,
जो मेरे अंदर और आस-पास है औरत
और खो गई है,
खो रही है
या खो जाने वाली है,
जिससे लगातार नाराज़ हैं हम दोनों
और नहीं मनाते।
यह बहुत बरस पहले की बात है
कि हम साथ में हरे सपने देखते थे
और ख़ुश रहते थे।
वे और दिन थे माँ सुनो,
उन दिनों खील खाकर ख़ुश रहा जा सकता था,
देखे जा सकते थे ग़ुब्बारे और पतंग शाम भर,
तुम मेरा माथा भी फोड़ सकती थी
और फिर छिपा सकती थी मुझे कहीं अंदर गहरे सुरक्षित।
ये कुएँ में कूद जाने या कविता पढ़ने के दिन नहीं हैं माँ
बाहर निकलकर देखो काला होता आसमान,
यहाँ जो इस शहर और इससे अगले शहर में जो आग लगी है
और माँ,
पानी प्यार की तरह ख़त्म होता जा रहा है,
अभी बोने हैं उसके बीज।
हम जहाँ जन्म लेते हैं,
अक्सर करते हैं उस जगह से नफ़रत।
हमारी प्यारी ख़ूबसूरत चाँद-सी माँएँ
धीरे-धीरे खलनायिकाएँ होती जाती हैं
हमारी धुएँ से भरी लड़ाइयों में।
- पुस्तक : सौ साल फ़िदा (पृष्ठ 127)
- रचनाकार : गौरव सोलंकी
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 2012
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