मेरी वफ़ादार भाषा,
मैंने तुम्हारी सेवा की।
हर रात मैं खड़ा रहा तुम्हारे सामने, कटोरियाँ रंग से भरी,
ताकि तुम्हारे पास हो एक भूर्जवृक्ष, एक टिड्डा और एक रोबिन पक्षी
मेरी स्मृति में सुरक्षित।
यह कई बरस चला।
तुम मेरी मातृभूमि थीं क्योंकि और कोई नहीं थी।
मैंने सोचा था कि तुम संदेशवाहक भी बन जाओगी
मेरे और अच्छे लोगों के बीच,
भले वे सिर्फ़ बीस, सिर्फ़ दस,
या कि अभी पैदा ही न हुए हों।
अब मैं नाउम्मीदी स्वीकार करता हूँ।
ऐसे क्षण होते हैं जब लगता है मैंने अपना जीवन बरबाद कर दिया।
क्योंकि तुम भाषा हो निम्नीकृतों की,
भाषा अविवेकियों की और उन की जो घृणा करते हैं,
ज़्यादा अपने से बजाए दूसरे देशों से,
मुख़बिरों की भाषा,
पागलों की भाषा,
अपने ही भोलेपन से बीमार।
लेकिन तुम्हारे बिना मैं कौन हूँ!
एक शिक्षक भर किसी दूर देश में,
कामयाब, बिना डर और बेइज़्ज़तियों के।
हाँ, मैं तुम्हारे बिना कौन हूँ!
सबकी तरह एक दार्शनिक।
मैं जानता हूँ, यह माना जाता है कि यह मेरी शिक्षा-दीक्षा है :
व्यक्तित्व की महिमा का अपहरण,
एक नीतिपरक नाटक में एक पापी के लिए
महान् महिमा एक लाल क़ालीन बिछाती है,
और उसी समय एक जादुई लालटेन
परदे पर बिंब फेंकती है मनुष्य और ईश्वर की यंत्रणा के।
मेरी वफ़ादार भाषा,
शायद मुझे तुम्हें रिहा कराना है।
इसलिए मैं फिर भी खड़ा होऊँगा तुम्हारे सामने कटोरियाँ रंग से भरी
उजले और साफ़ अगर संभव हो,
क्योंकि दुर्भाग्य में ज़रूरत होती है कुछ व्यवस्था और सुंदरता की।
- पुस्तक : दरवाज़े में कोई चाबी नहीं (पृष्ठ 93)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक अशोक वाजपेयी, रेनाता चेकाल्स्का
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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