मेहनतकश किसान

mehanatkash kisan

वसीम अकरम

वसीम अकरम

मेहनतकश किसान

वसीम अकरम

और अधिकवसीम अकरम

    दुनिया के किसी भी कोने में

    या ज़िंदगी के किसी भी हिस्से में जाकर

    बस एक हल्की नज़र भर देख लीजिए

    उसके हर ज़र्रे में किसान नज़र आएगा

    वहाँ उसकी मेहनत नज़र आएगी

    और उसकी लहलहाती फ़सलों के मुस्कुराते दाने नज़र आएँगे

    भले ही वो दाने किसी भी रूप में क्यों हों

    या किसी भी सूरत में ही क्यों हों

    मगर फिर भी छुपी नहीं रह सकती

    किसानों के ख़ून-पसीने और

    उनके मिट्टी में मिलकर सोना उगाने की कहानी

    क्योंकि दुनिया का हर काम

    पेट से होकर ही अपनी मंज़ि‍ल तय करता है

    और जहाँ कहीं भी यह पेट होगा

    वहाँ उसको भरने के लिए

    एक अदद किसान ज़रूर होगा

    उसकी लहलहाती फ़सल ज़रूर होगी

    और होगी, उसके मेहनतकश जिस्म की एक लंबी दास्तान...

    ये बाज़ार जो पूँजी से चलता है

    उसके किसी भी कोने में खड़े हो जाइए

    वहाँ भी दुकान और शॉपिंग मॉल के हर हिस्से में

    किसान ही किसान नज़र आएगा...

    ये किसान अगर अनाज और फल पैदा करें

    तो बड़े से बड़ा बाज़ार भी पल भर में ध्वस्त हो जाए

    ये किसान अगर गन्ना, दूध और चाय पैदा करें

    तो किसी छद्म चाय वाले का

    कोई ज़ि‍क्र तक हो किसी की ज़ुबान पर...

    इंसान की बुनियादी ज़रूरतों में

    ये जो रोटी, कपड़ा और मकान है

    ये सब कुछ किसान के ही बदौलत मुमकिन है

    मगर बड़ी विडंबना यह है कि इन्हीं चीज़ों पर

    हमारे एहसान-फ़रामोश नेता सियासत करते रहे हैं सदियों से

    लेकिन इस सियासत का ज़ुल्म सहकर भी

    ख़ुद की जान गँवाकर भी

    किसानों ने अनाज उगाने से कभी मुँह नहीं मोड़ा

    क्योंकि उन्हें मालूम है कि वे

    किसी सियासी दफ़्तर के मुलाज़ि‍म नहीं

    जो दरवाज़े पर बहाने से भरे गुच्छे का बोर्ड लटकाकर

    आराम फ़रमाने विदेश चले जाएँ

    अरे साहब! किसान आराम क्या करेगा भला

    माक़ूल वक़्त निकल जाए और पानी सरक जाए

    तो महीनों की मेहनत से तैयार हुआ उसका खेत

    उससे रूठकर यूँ ही बंजर हो जाए

    और किसान अपने खेत को कभी बंजर नहीं देख सकता

    ये किसान कोई नेता नहीं हैं

    जो संविधान की क़सम खाकर भी

    संसद और लोकतंत्र की गरिमा को बंजर बना दें...

    हम चाहे जितनी भी तरक़्क़ी कर लें

    मगर जब भूख लगेगी तो अनाज ही खाना पड़ेगा

    कोई मोबाइल, कंप्यूटर, गाड़ी या हवाई जहाज़ नहीं

    मगर विडंबना तो ये है कि नासमझ सरकारें

    इन चीज़ों को ही विकास समझती हैं

    और खेती-किसानी जैसे बेहद ज़रूरी मुद्दों से

    सरकारें ऐसे मुँह मोड़ लेती हैं जैसे

    विकास के पैमाने में खेती का कोई वजूद ही हो...

    मगर याद रहे

    दुनिया में अगर सबसे अच्छा कोई विकास है

    तो वह है इंसानों का पेट भरना

    और हमारे किसान अपनी पूरी उम्र यही काम करते हैं...

    क्योंकि किसानों को मालूम है

    जिस देश में एक भी इंसान अगर भूखा सोता है

    तो वह देश निहायत ही बहुत बदनसीब होता है...

    स्रोत :
    • रचनाकार : वसीम अकरम
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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