वियोग शृंगार

wiyog shringar

मनोज कुमार पांडेय

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वियोग शृंगार

मनोज कुमार पांडेय

और अधिकमनोज कुमार पांडेय

    वियोग के बारे में प्रामाणिक कौन हो सकता है जिसने संयोग की सघनता को जिया हो या जिसने संयोग को जाना ही नहीं। जो बिना प्रिय को एक बार भी चूमे हुआ उसका मजनूँ या वो जिसने मिलन के मधुमय दिन बिताए मदभरी रातें बिताईं और अब सिर्फ़ स्मृतियाँ बची हैं मिलन के एकसार क्षणों की। अभाव की कल्पना ज़्यादा बड़ी है या भाव की स्मृति। पहले में अभाव है पर अभावी को उसका सही सही मतलब ही नहीं पता। ईश्वर की कीर्तन करते हुए पागल होने जैसा है मिलन के पहले का इकतरफ़ा वियोग। तो क्या पागल होना वियोग का चरम नहीं। प्रिय का संसार बसा लेना अपने भीतर और उसके भी भीतर जाकर रहना कौन जाने। मिलन के बाद का वियोग जहाँ बार बार मिलन की रसभरी स्मृतियों में जाता व्याकुल मन उसके अभाव को भोगता है जिसके भाव को भोगा था उसने कभी जिसके सहारे संभव है कल्पना मिलन के अनंत की।

    स्मृति में हो कि कल्पना में जहाँ भी हो आँख का आँख से मिलना मन से मन का देह से देह का संयोग से संयोग का कुछ इस तरह से कि दोनों का संयोग मिलकर संयोग शृंगार बन जाए। इसके बाद आएँ वो दिन पहाड़ से जब संयोग से अलग हो संयोग देह से अलग हो देह पर मन से जुड़ा रहे मन। दोनों सही कोई एक ही हो जो निशि-वासर जीता रहे दूसरे को पल-पल अपने भीतर कुछ इस तरह कि शृंगार के आचार्य भी बता पाएँ कि यह वियोग की है कौन-सी अवस्था। वियोग जो हर लेता है हमसे प्रेम के सिवा सब कुछ और हम जानते ही जानते चले जाते हैं वियोग के समय अपने प्रियतम को। घनीभूत होती चली आती हैं स्मृतियाँ। स्मृति में हो कि कल्पना में जहाँ भी हो मिलन का पल अनंत होता जाता है। उस अनंत पल में जानते हैं अपने प्रियतम को और भीतर से जाने कितने प्रियतम निकलते चले आते हैं। नए-नए प्रियतम।

    वियोग हो तो हम जान ही पाएँ कि हमारे लिए कितना ज़रूरी है हमारा वह बिछुड़ा हुआ हिस्सा कि जैसे एक ही बीज के हों दो टुकड़े जिनका अलग होना दोनों को कर दे बंजर बेकार। कि जैसे अलग-अलग बिखरी हाइड्रोज़न और ऑक्सीजन हों वायुमंडल में कितना भी फैलें अलग-अलग नहीं बनेगा पानी नहीं संभव होगा जीवन और प्यास का तो मतलब ही नहीं जानेंगे। कि हम कितना भी दूर रहें उससे धड़कना है उसी के भीतर। साँस भले ही अपनी दिखाई दे हवा उसी के भीतर आती और जाती है ख़ून का रंग उसी के दम पर होता है लाल जिस्म में बची रहती है नमी उसी के दम पर। वियोग हो तो हम जान ही पाएँ कि हम बैठे हैं उसी के भीतर छुपकर कि जाने अनजाने उसी को बना लिया है अपना घर। वियोग हो तो प्रेम की स्मृतियाँ हो जाएँ बेकार वे हहराती अकुलाती घूमें हमारे चारों ओर हमें पता ही चले। हमसे दूर हमारी तड़प में टूटी बिखरी मर ही क्यों जाएँ हमारे प्रेम की स्मृतियाँ।

    भला बताओ कि स्मृतियाँ हों तो कहाँ रहे प्रेम का जिया हुआ पल कहाँ रहे सब कुछ अगला और पिछला कहाँ रहे शुरुआती दिनों का नैन-मटक्का जो धीरे-धीरे छीनना शुरू करता है हमारा चैन और तब हमारे ही भीतर से प्रकटता है जाने कब से छुपा बैठा प्रेम। तो कहीं वियोग हमारी ही सुखद स्मृतियों का खेल तो नहीं कि अपने को बचाए रखने की ख़ातिर जानबूझकर करवाती हों बिछोह हमारे उन्हीं सघन दिनों में पैदा कर देती हों तकरार की कोई वजह कि हम लड़ें-झगड़ें-झल्लाएँ-चिल्लाएँ और हो जाएँ एक दूसरे से दूर और फिर फिर से जानें अपने प्रियतम को। ये तो कुछ ऐसे हुआ कि हम प्रेम के दिनों में रहे हों बंद कली के भीतर और कली के खिलकर फूल बनते ही ख़ुशबू की तरह निकल आया हो वियोग। वह पलता रहा हो संयोग के साथ साथ मिलन के सबसे सघन और मादक दिनों के बीच भी। कि जैसे संयोग में छुपा है वियोग वैसे ही वियोग में छुपा है संयोग भी। वियोग का काल संयोग का भी काल होता है वियोगी अँधेरे में हम आत्मा तक डूबे होते हैं संयोगी पलों में।

    जब लगभग तय रहा कि स्मृतियाँ ही रचती हैं वियोग तो कहीं ऐसा तो नहीं कि स्मृतियों का साथ देने के लिए इकट्ठा हो जाती हों ज़माने भर की शैतानी ताकतें जो स्मृतियों के खेल को बदल देती हों एक साज़िश में और कई बार यह भी हो जाता हो कि स्मृतियों पर हो जाती हों हावी वही शैतानी ताकतें जो अकेले तो शायद कुछ भी कर पातीं कौन जाने कि कभी जीत ही जाती हों। स्मृतियाँ भले ही उनके पक्ष में हों या ख़िलाफ़ पर इतना तो तय है कि ऐसे दिनों में स्मृतियाँ ही बचाए रखती हैं प्रेम। आख़िरकार कौन जाने प्रेम की बात और प्रेम की तरह प्रेम की स्मृतियाँ भी हों अथाह समुंदर-सी और यह कि किन्हीं भी अर्थों स्मृतियों में प्रेम का बचा होना भी शैतानी ताक़तों का तबाह होना है जबकि प्रेम की क़रारी हार भी नहीं कर सकती प्रेम को तबाह तब उसे बचाती हैं स्मृतियाँ तब उसे बचाता है हमारा अपना वियोग शृंगार।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनोज कुमार पांडेय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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