मंडी हाउस में पागल
manDi haus mein pagal
चुप बैठा कुछ उँगलियों से गिन रहा था
एक, दो, तीन, चार
फिर कुछ लकड़ी की गिन्नियाँ
उठाकर जलती आग में फेंक देता है
और अपने हाथ सेंकने लगता है
थोड़ी देर बाद
काला कोट अपने थैले से निकाल लेता है
कोट पहनकर वह
निहायत ही ग़रीब बंजारा
सड़क के बीचों-बीच
चारो ओर घिरे लोहे की सर्किल पर बैठ जाता है
अब देखने लगता है निहायत ही अस्पृश्य तरीक़े से
आती-जाती गाड़ियाँ
यह सड़क बाबर रोड से बंगाली मार्किट होती हुई
जहाँ ज़ोर-ज़ोर से हंसकर बिखरती हुई
नाचने लगती है
वह मंडी हाउस कहलाता है
बिखरे बालों वाला पागल
अक्सर यहीं बैठा रहता है
चुपचाप कुछ उँगलियों से गिनता हुआ
यह सड़क और यह चौराहा कलाकारों का है
ऐसा इसलिए कि—
हर कोई कलाकार है यहाँ
खोमचे वाले से लेकर मोची तक
और अमरुद वाली से लेकर पेटिज़ वाले तक
सब कलाकार हैं यहाँ
अपने रंग में रंगे हुए
शहर में दिलचस्पी
बहुत कम लेते है ये लोग
लेकिन शहर की दिलचस्पी
इन्हीं से बढ़ती है
इन सब लोगों को इतिहास बहुत पता होता है
कला के जन्म लेने से
उसके बनने, बिखरने, सँवरने और बेलौस हो जाने तक!
जब ये कलाकार बेलौस हो जाते हैं तो
पागल कहलाते हैं
और हर वो शख़्स जो अपनी रौ में है
मंडी हाउस में बैठा हुआ है
वो रहा बिखरे बालों वाला आदमी
सुना है किसी जमानें में
बहुत बड़ा शाइर हुआ करता था
वो नज्में लिखता, काग़ज़ फाड़ता और सामने रखे
अपने थैले में रख लेता था
कोई एक गिन्नी उठाकर आग में डाल देता
फिर देर तक हाथ सेंकता
सड़क के किनारे वाली
लोहे की सर्किल पर
बैठा रहता है बहुत देर तक!
कभी उसका मन होता तो
वो जेब से एक सिगरेट निकालकर देर तक कश मारता रहता
जब उसकी मर्ज़ी होती
वो बड़ी-बड़ी बातें करने लगता
ये मंडी हाउस में भटकता हुआ
भारी-भरकम दलीलें दिया करता है
ये न्याय, समानता, धर्मनिरपेक्षता, अधिकार, लोकतंत्र और देशप्रेम की
बातें नहीं करता है
इसे इसका लोकतंत्र इसकी डायरी में मिलता है
इसकी धर्मनिरपेक्षता और सोशल जस्टिस की बात पर वह गिन्नियाँ
आग में डाल देता है
और समानता और अधिकार की बातों पर
इसके हाथ ठिठुर जाते हैं
देशप्रेम की बात पर
यह चौराहे की लोहे वाली सर्किल पर बैठा हुआ
कुछ बुदबुदा रहा है
यह मंडी हाउस का पागल है
नज़दीक बहुत जंतर-मंतर के
कहो तो एक धरना दे दे की इसे पागल किसनें बनाया?
- रचनाकार : प्रेमा झा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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