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शिखंडी

shikhanDi

प्रमिला शंकर

अन्य

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और अधिकप्रमिला शंकर

    वह जन्म से स्त्री था—

    जैसे किसी अधूरी कविता की पहली पंक्ति

    दूसरी आधी पंक्ति किसी और लिपि में लिख दी गई

    वह पुरुष भी था—

    पर उसका पुरुषत्व उसकी

    देह में एक उधार की तरह रखा था,

    जिस पर किसी और की छाया थी।

    गाँव के तालाब में उसका प्रतिबिंब हमेशा कांपता—

    पानी तय नहीं कर पाता कि उसे किस रूप में थामे

    वह स्वयं भी अपने चेहरे का आधा हिस्सा

    कभी छुपाता, कभी मिटा देता

    युद्ध के दिन, कुरुक्षेत्र की धूल

    उसके पैरों से लिपटी रही—

    जैसे पहचान की सारी अस्पष्टता अब नियति में बदल गई हो

    भीष्म ने उसे देखा, और समय एक पल के लिए ठहर गया

    धनुष नीचे हुआ, और

    पीढ़ियों का अपमान एक मौन की तरह रणभूमि में फैल गया।

    विजय के बाद भी वह रथ से उतरा नहीं—

    जैसे जानता हो कि कोई स्वागत नहीं करेगा।

    क्योंकि उसकी जीत किसी और के नाम लिख दी जाएगी,

    और उसका नाम इतिहास में एक चाल, एक हथियार,

    एक उपयोग बनकर रह जाएगा।

    रात को, वह अकेला रणभूमि के किनारे खड़ा था—

    बिखरी हड्डियों और टूटे रथों के बीच

    आकाश में चंद्रमा था,

    जो स्वयं भी आधा था

    कुछ लोग अपने पूरे जीवन में

    अपने ही नाम के लिए जगह नहीं बना पाते—

    वे बस किसी और की कथा में,

    एक अनिवार्य पर, अनाम पंक्ति बनकर रह जाते हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रमिला शंकर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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