वन-जुही

wan juhi

जी. शंकर कुरुप

और अधिकजी. शंकर कुरुप

    हे नियति के मृदु निर्मल हास,

    नयनों को चूमने वाले नव्य प्रकाश,

    तुम हो अनुपम विश्वोत्सव के निमित्त

    आकाश पर ऊँचे फहराने वाली लाल रेशमी ध्वजा।

    हे निष्पाप,

    तुम्हारी सुंदरता के सागर में

    हिलोरें ले रहे हैं पखेरू;

    तरुण-पवन के स्पर्श सुमन से दोलायमान

    ये विकसित श्वेत सुमन मंजरियाँ

    उठा रही हैं धवल फेन।

    आकाश के तारक नयन

    मूँद लेते हैं पलकें हर्षातिरेक से;

    तब पाकर तुम्हारा स्पर्श-पुलक

    आनंद से फूल उठा है

    सागर का वक्षस्थल

    और पुलकित है अरण्य नख-शिखांत।

    श्यामलता से भरा बादल का कपोल

    अभिराम बन गया है आनंद की अरुणिमा से,

    चूमकर तुम्हारे अंशुक का आँचल

    ताण्डव कर रहे हैं ये पल्लव-दल।

    मैं हूँ एक वन-जूही,

    नहीं जानती जनगण का आदर,

    विनय और लज्जा से विह्वल,

    कैसे करूँगी तुम्हारा स्वागत?

    हे मेरे दिव्य अतिथि!

    सुनहरे पटंबर से समाच्छादित

    मरकतमय शैल-पीठ के समीप

    खड़ी थीं लतिकाएँ।

    अपनी ललित शाखाओं में

    स्वर्णिम पल्लव-वसन लेकर

    चामर झुलाने के लिए,

    अनेक ऊँचे पर्वत

    फलों का उपहार समर्पित करने के लिए,

    सेवा-निरत प्रभात

    रजत-नक्षत्रों का दीप लिए;

    तब आप मृदुल मुस्कान के साथ

    मेरे ही समीप आए, मैं लज्जा-विभोर हूँ।

    आपकी सादर अभ्यर्थना के लिए

    समुद्र का सा मंद्र-मधुर वाद्य नहीं;

    आपको विराजमान करने के लिए

    हृदय को छोड़कर दूसरा सदन नहीं

    इस क्षुद्र पुष्प के पास।

    सद्य:स्फुटित गुलाब की

    आनंद-दायक सुरभि का एक लघु कण तक मुझ में नहीं,

    मुग्ध झरनों की तरह

    मनोरम गीत गाना भी मुझे नहीं आता।

    तुमको समर्पित करने के लिए

    मधु भी तो मेरे पास नहीं;

    हे मधुर दर्शन, मैं लज्जा से बोल भी नहीं पाती;

    मालूम, आप क्या सोचेंगे अपने मन में?

    कैसे जानेंगे मेरे परम विशुद्ध प्रेम को?

    क्या से ओस-कणों के अश्रु

    प्रकट कर सकते हैं मेरे मन के सब भाव?

    चूम लो मुझे, चूमते रहो

    जब तक कि मन का तुमुल अंधकार मिट जाए।

    हाय!

    मेरे जीवन का प्रतिक्षण

    तुम प्रणयी के पथ पर

    अपंकिल पाँवड़ा बिछा पाता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : ओटक्कुष़ल (बाँसुरी) (पृष्ठ 56)
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक जी. नारायण पिल्लै, लक्ष्मीचंद्र जैन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1966

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