महाप्रस्थान
mahaprasthan
और जगत् ने और जगत् ने
और जगत् ने दी आवाज़
बढ़े चलो रे बढ़े चलो रे
बढ़े चलो रे बढ़-बढ़ के!
क़दम बढ़ाते पद नव गाते
गरज-तरजते दिलेर बन के
बढ़े चलो रे बढ़-बढ़ के!
सुना नहीं क्या उस जगती का
जल प्रपात!
क़दम-क़दम पर गरम-गरम कर
ख़ून जिगर का बहा बढ़ाते
बढ़े चलो रे!
पार पथों के ठोस क़िलों के
आर पार तक बढ़े चलो रे!
नद-नदियाँ चल पहाड़ जंगल
मरु धरती तल रोक सकेंगे
क्या हम को?
सड़ी हड्डियां बड़ी झुर्रियाँ
ले सठियाए सुस्त बुज़ुर्गों,
गिर मर जाओ।
गरम ख़ून से तन ऐंठन से
जड़े जवानो बढ़े चलो रे!
और जगत् ही महा जगत् ही
इस दुनिया भर फैला है रे!
आँधी जैसे धूम मचाओ!
भाव वेग से फैले जाओ!
प्रलय काल के बादल जैसे
गरज कड़क कर टूट पड़ो रे!
क्या ना देखे और जगत् के
त्रैतानल के धधक निकलते
शोले जलते?
उड़-उड़ गिरते उड़ते गिरते
लाखों के वे मेरु महीधर
घूम-घूम कर घूम समुंदर
जल प्रलय का नाच दिखाते!
तेल रे नहीं खौलता यही
गरम ख़ून का ताल रे सही!
शिव सागर से नयागरा से
बढ़े चलो रे, चढ़े चलो रे!
उस जगती का वह नक्कार
विराम के बिन बजता है रे!
अर्जुन जैसे नागिन जैसे
शिकार करते महा श्वान से
बढ़े चलो रे, चढ़े चलो रे!
ना देखी क्या उस जगती का
अनल मुकुट की चमक दमक?
लाल ध्वजा की तड़क-भड़क?
होम-शिखा की धधक भभक?
- पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 21)
- संपादक : माधवराव
- रचनाकार : श्री श्री
- प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
- संस्करण : 1985
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