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उद्बाहु हो उछलती कौन यह!

udbahu ho uchhalti kaun yah!

प्रवीण पण्ड्या

प्रवीण पण्ड्या

उद्बाहु हो उछलती कौन यह!

प्रवीण पण्ड्या

और अधिकप्रवीण पण्ड्या

    पतंजलि! देखो तो सही,

    अपने आपको वैयाकरण कहने-मानने वाले

    इन लोगों को,

    जो लगा रहे हैं सूत्र तमस् का,

    प्रकाश की इत्संज्ञा करने को।

    वाचस्पति! निहारो तो सही

    स्वयं को शंकराचार्य समझने वालों को

    जो उकसा रहे हैं माया को

    येन केन प्रकरणेन

    सच को मिथ्या सिद्ध करने।

    देखो तो लगधमुनि!

    वैदिक बन घूम रहे

    संज्ञा को क्रिया समझने वाले इन जड़बुद्धियों को

    जो मोटा-तगड़ा कर रहे हैं

    ‘उद्बुध्यस्व अग्ने‘ मंत्र से नपुंसक बुध को

    कि युति में स्थित

    मेषस्थ वैशाखी सूरज को अस्त कर दें।

    सुनो सागर!

    ये मूर्ख ऊँट

    मुट्ठी भर रेत को प्रेरित कर रहे हैं

    तुम्हें मरुस्थल बनाने को...

    तमस् के दूत।

    ख़ूब प्रतिपादन करो सत्ता तमस् की

    किंतु

    वह तो आता है दबे-पाँव

    जबकि

    प्रकाश सुस्ताता है क्षण भर।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रवीण पण्ड्या
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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