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लौटना

lautna

प्रतीक ओझा

और अधिकप्रतीक ओझा


    एक

    जाने में जाने की पूरी तैयारी रहती और तय रहता था कि इस दिन जाना है जिसके बाद बस नेपथ्य में कहीं उस जाने को रोकने का निनाद गूँजा करता जो जाने को कठिन बनाता फिर भी लोग जाते रहे होता रहा जाना और गूँजता रहा रोके जाने का निनाद—किसी परंपरा की तरह!

    दो

    जाने में केवल जाना रहा करता
    लौटना या तो होता ही नहीं था
    या फिर अनिर्णीत रहता था
    लौटने का होना
    इसलिए लौटने की कभी कोई तैयारी नहीं रही
    बस इतना ही रहा
    कि किसी एक दिन लौट आना है।

    तीन

    जब कभी लौटना नहीं हुआ करता
    तो लौटने का वादा रहा करता
    उन वादों पर बने गीत रहते
    जिन पर एक कोमल-सी सुकुमार आस
    टिकी रहती
    जो लौटने में ज़रा-सी देरी पर
    टूटकर
    एक बेबस आदमी की
    बेबस पुकार में तब्दील हो जाती…

    चार

    लौटना निश्चित न रहा हो
    लौटने का दर हमेशा निश्चित रहा
    और जब दर रहा तो
    लौटना भी बना रहा

    लौटने का दर होना
    घर होने की तरह हुआ करता है
    और दुनिया में सबसे आसान होता है
    घर लौटना।

    पाँच

    हर जगह से लौटा जा सकता था
    पर उन जगहों से लौटना
    सबसे कठिन रहा
    जहाँ हम
    गए ही थे
    कभी न लौटने के लिए
    और फिर भी हमें
    न चाहते हुए
    लौटना पड़ा।

    छह

    कई जगहों से लौटने की क्रियाएँ होती रहीं
    पर किसी की स्मृतियों से लौटना
    दुनिया का सबसे कठिन काम रहा
    जिसे स्मृतियों से जबरदस्ती खदेड़कर
    संभव किया जाता था
    और यदि किसी की स्मृतियों से
    लौटना पड़े मुझे
    तो यही कहूँगा
    हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया
    ‘जाना’
    नहीं
    ‘लौटना’
    है।

    सात

    व्यक्ति कुछ नींदों से कभी नहीं लौट पाता
    वह बस चला जाता है
    तब भी जाना उस तरह दुख नहीं देता
    वह कभी दुखद था ही नहीं
    बल्कि जाने पर यही लगता रहा
    कि कहीं ऐसी जगह पर हैं
    जहाँ से कल लौट आएँगे या परसों
    या कुछ दिनों या महीनों में
    और उतना ही सामान्य-सा सूनापन लगता
    जितना सामान्य तब लगता था
    जब लौटने के वादे के साथ जाया जाता हो।

    पर मूड़ी औंधाए छाती पीटकर
    रोना तभी मुमकिन हो पाता
    जब जाने के बाद
    लौटना न हो
    लौटने की आस भी न हो
    उसके गीत भी न हों
    सिर्फ़ जाना हो
    केवल जाना,
    जाने में लौटने का यह न होना ही
    जाने को पहाड़ की तरह दुखदायी बनाता था
    और यह बात वही जानते हैं
    जिनके गए लोग
    कभी लौटे न हों।
    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रतीक ओझा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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