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क्योंकि तुम हो

kyonki tum ho

अज्ञेय

अन्य

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अज्ञेय

क्योंकि तुम हो

अज्ञेय

और अधिकअज्ञेय

    स्वर:अज्ञेय

    मेघों को सहसा चिकनी अरुणाई छू जाती है

    तारागण से एक शांति-सी छन-छन कर आती है

    क्योंकि तुम हो।

    फुटकी की लहरिल उड़ान

    शाश्वत के मूक गान की स्वर लिपी-सी संझा के पट पर अँक जाती है

    जुगनू की छोटी-सी द्युति में नए अर्थ की

    अनपहचाने अभिप्राय की किरण चमक जाती है

    क्योंकि तुम हो।

    जीवन का हर कर्म समर्पण हो जाता है

    आस्था का आप्लवन एक संशय के कल्मष धो जाता है

    क्योंकि तुम हो।

    कठिन विषमताओं के जीवन में लोकोत्तर सुख का स्पंदन मैं भरता हूँ

    अनुभव की कच्ची मिट्टी को तदाकार कंचन करता हूँ

    क्योंकि तुम हो।

    तुम तुम हो; मैं—क्या हूँ?

    ऊँची उड़ान, छोटे कृतित्व की लंबी परंपरा हूँ,

    पर कवि हूँ स्रष्टा, द्रष्टा, दाता :

    जो पाता हूँ अपने को भट्टी कर उसे गलाता-चमकाता हूँ

    अपने को मट्टी कर उसका अंकुर पनपाता हूँ

    पुष्प-सा, सलिल-सा, प्रसाद-सा, कंचन-सा, शस्य-सा, पुण्य-सा, अनिर्वच आह्लाद-सा लुटाता हूँ

    क्योंकि तुम हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सन्नाटे का छंद (पृष्ठ 68)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : अज्ञेय
    • प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
    • संस्करण : 1997

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