कुछ बन जाते हैं

kuch ban jate hain

उदय प्रकाश

उदय प्रकाश

कुछ बन जाते हैं

उदय प्रकाश

और अधिकउदय प्रकाश

    तुम मिसरी की डली बन जाओ

    मैं दूध बन जाता हूँ

    तुम मुझमें

    घुल जाओ।

    तुम ढाइ साल की बच्ची बन जाओ

    मैं मिसरी धुला दूध हूँ मीठा

    मुझे एक साँस पी जाओ।

    अब मैं मैदान हूँ

    तुम्हारे सामने दूर तक फैला हुआ।

    मुझमें दौड़ो। मैं पहाड़ हूँ।

    मेरे कंधों पर चढ़ो और फिसलो।

    मैं सेमल का पेड़ हूँ

    मुझे ज़ोर-ज़ोर से झकझोरो और

    मेरी रूई को हवा की तमाम परतों में

    बादलों के छोटे-छोटे टुकड़ों की तरह

    उड़ जाने दो।

    ऐसा करता हूँ कि मैं

    अख़रोट बन जाता हूँ

    तुम उसे चुरा लो

    और किसी कोने में छुपकर

    तोड़ो।

    गेहूँ का दाना बन जाता हूँ मैं,

    तुम धूप बन जाओ

    मिट्टी-हवा-पानी बनकर

    मुझे उगाओ

    मेरे भीतर के रिक्त कोषों में

    लुका-छिपी खेलो या कोंपल होकर

    मेरी किसी भी गाँठ से

    कहीं से भी

    तुरत फूट जाओ।

    तुम अँधेरा बन जाओ

    मैं बिल्ली बनकर दबे पाँव

    चलूँगा चोरी-चोरी।

    क्यों ऐसा करें

    कि मैं चीनी मिट्टी का प्याला बन जाता हूँ

    और तुम तश्तरी

    और हम कहीं से

    गिरकर एक साथ

    टूट जाते हैं सुबह-सुबह।

    या मैं ग़ुब्बारा बनता हूँ

    नीले रंग का

    तुम उसके भीतर की हवा बनकर

    फैलो और

    बीच अकाश में

    मेरे साथ फूट जाओ।

    या फिर...

    ऐसा करते हैं

    कि हम कुछ और बन जाते हैं

    मसलन...।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अबूतर-कबूतर (पृष्ठ 11)
    • रचनाकार : उदय प्रकाश
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1984

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