कुछ जलता है

kuch jalta hai

मलयज

मलयज

कुछ जलता है

मलयज

और अधिकमलयज

    सब चीज़ें जैसी की तैसी धरी हैं एक सकते का आलम

    सिर्फ़ हवा फेफड़ों में ख़ून नाड़ियों में साँस

    मुट्ठियों में कि कोई कहता है एक पेड़ अपना हरापन लिए-दिए

    अररा कर गिर रहा है

    एक ख़ौफ़ की झुरझरी ज़बान से चिपक गई

    झुटपुटे में एक स्त्री

    बस में अपना स्तन बचाए उतर गई

    पत्तियों की चोट से उड़ी धूल में

    एक चेहरा है जो बार-बार नुचा जा चुका

    दाँत और मसूढ़े एक-एक कर झड़ चुके

    आँतें भी गिरवी हो चुकीं

    अर्थ से निचुड़ कर

    बढ़ते नाख़ून और पंजे

    दृश्य को फोड़ कर अपने पक्ष में करता मैं

    वहाँ जाना चाहता हूँ दीवार से सटता-सटता

    कि सर्र से गुज़र जाता है

    आदमी के पास से

    मेरे होने का हुजूम

    एक दरार से होकर छटपटाहटों में

    धीमी आँच में सुलगती हुई इबारतें

    आसमान के झूठ में खुद जाती हैं

    और दस्ताने पहन कर मैं उन्हीं के पास वापस

    लौट आता हूँ—नंगी चमड़ी से छूने में उन्हें

    कुछ जलता है मौत-सा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ (पृष्ठ 39)
    • रचनाकार : मलयज
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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