1
क्योंकि बिसराया पड़ा होगा तब अग-जग।
चुप्पियाँ तब होंगी अलग-अलग—गगन की,
दुनिया के हश्र पर पस्त चरागाहों की,
और उनसे भी अलग—कुत्तों के बाड़ों की।
भागते परिंदों का झुंड उड़ा जा रहा।
और हम देखेंगे पूरब उठता सूरज
जो है अवाक् जैसे पगलाई आँख,
और निर्विकार जैसे घुन्ना बनैला।
लेकिन मैं पहरे पर अपने निर्वासन में,
क्योंकि मुझे सोना नहीं है उस रात,
लेता करवट मानो हज़ार पत्तों से
और बोलता हूँ गझिन रात में दरख़्त-सा :
याद है भटकन उन बरसों की?—
परतदार खेतों में बरसों की भटकन?
और, चीन्हते हो मेरा लुंज-पुंज हाथ?
याद हैं झुर्रियाँ नश्वर होने की?
और, जानते हो, क्या नाम है यतीमी का?
और, क्या पता है, कैसी पीड़ा—
झिल्ली के पंजों, फटे खुरों वाली—
चौकड़ी यहाँ भरती अनश्वर अँधियारे में?
एकाकी रात, ठंड, खंदक,
बंदी का सिर धीरे-धीरे लुढ़कता हुआ,
याद है पत्थर हुए नाले? यंत्रणाएँ—
अतल की—याद हैं तुम्हें ये सब?
उग आया सूरज। बिरवे उठे तिलमिलाते
क्रोधी गगन के अवरक्त के ख़िलाफ़।
मैं चला। वीराने में नज़र आता है
एक जन एकाकी, नपे-तुले डग भरता।
कुछ नहीं उसका, परछाईं है।
लाठी है। बंदी का बाना है।
2
कितना अच्छा है जो सीख लिया चलना!
शायद इन्हीं ठिठके, कसैले डगों के लिए।
घिर आई शाम, और फिर रात
जड़ देगी अपना कीचड़ मुझ पर, पलक भींच
चलते रहना है मुझे, वे झुरझुराते
नाज़ुक दरख़्त, नाज़ुक उनकी शाख़ें।
एक-एक पत्ते में खौलता, महीन वन।
किसी समय इसी जगह होता था स्वर्गलोक।
अधनींद बार-बार उठती है कसक :
वे विशालवृक्ष मुझे अब तक पुकार रहे!
अंततः घर पहुँचूँ, यही थी कामना
वैसी ही, जैसी उसकी थी, इंजील में।
मेरी विकराल परछाईं पड़ी आँगन में आर-पार।
तहदार ख़ामोशी, सो रहे भीतर बूढ़े माँ-बाप।
लो वे भी आ रहे, मुझको पुकारते, बेचारे
मुझको अँकवारने, डगमग, बिसूरते।
मुझे लिवा ले जाती रीत वह पुरातन।
कुहनी टिकाता मैं झिलमिल सितारों पर—
काश मैं कुछ भी कह पाता इस वक़्त,
तुमसे, जिन्हें मैंने प्यार किया इतना! बरस दर बरस,
ओने-कोने में कलपते शिशु की तरह
मैंने उचारी है यही एक आस—
मुरझाई, रुँधी आस—लौटूँगा घर अपने
और तुम मिलोगे मुझे अंततः इसी ठौर!
भरभरा उठा है गला तुम्हारी नज़दीकी से।
डर गया हूँ जैसे बनैला डर जाता है।
तुम्हारे ये शब्द, ये बोली इंसान की
मैं नहीं बोलता। हैं कुछ परिंदे
अब जिनके टूटे दिल, खोजते पनाह
गगन के तले, दहकते गगन-तले।
चिलकते मैदानों में धँसी शहतीरें अनाथ।
बेरहम हुजूम में जलते हुए दड़बे।
मैं नहीं जानता इंसानी भाषा
और नहीं बोलता तुम्हारी ये बोली।
शब्द से भी ज़्यादा बेघर है मेरा शब्द
शब्द तो है ही नहीं।
उसका भयावह बोझ
भहरा रहा है हवा के नीचे
बुर्ज के बदन से निकलती हैं आवाज़ें।
तुम कहीं नहीं हो। रीता पड़ा है हमारा संसार।
एक बग़ीची-कुर्सी। बाहर पड़ी एक आराम-कुर्सी।
नुकीले पत्थरों पर खड़खड़ाती मेरी छाया।
थक गया बेहद। उझक उझक पड़ता ज़मीन से।
3
देख रहा है प्रभु, खड़ा हूँ मैं धूप में।
देख रहा मेरी परछाईं वह, पत्थर पर, द्वार पर।
साँस के बग़ैर खड़ी परछाईं—देख रहा,
मेरी परछाईं इस हवाबंद कोल्हू में।
तब तक तो लेकिन मैं पत्थर हो जाऊँगा;
मरी हुई परत, एक ही बनत के खाँचे हज़ार,
तब तक तो मुट्ठी भर मलबा
हो जाएँगे जीवों के मुखड़े।
और, अश्रु नहीं मुखड़ों पर झुर्रियाँ ढरकती हैं,
ढरक रही है, रीती खंदक ढरक रही है।
- पुस्तक : दस आधुनिक हंगारी कवि (पृष्ठ 49)
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक गिरधर राठी, मारगित कोवैश
- प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
- संस्करण : 2008
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