केशों की कथा

keshon ki katha

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

केशों की कथा

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    घन और भस्म-विमुक्त भानु-कृशानु सम शोभित नए,

    अज्ञात-वास समाप्त कर जब प्रकट पांडव हो गए।

    तब कौरवों से शांति पूर्वक और समुचित रीति से,

    माँगा उन्होंने राज्य अपना प्राप्य था जो नीति से॥

    किंतु वश में कुमति के निज प्रबलता की भ्रांति से,

    देना चाहा रण-बिना उसको उन्होंने शांति से।

    तब क्षमा-भूषण, नित्य निर्भय, धर्मराज महाबली,

    कहने लगे श्रीकृष्ण से इस भाँति वर-वचनावली—

    “दुर्योधनादिक कौरवों ने जो किए व्यवहार हैं

    सो विदित उनके आपको संपूर्ण पापाचार हैं।

    अब संधि के संबंध में उत्तर उन्होंने जो दिए,

    हे कमललोचन! आपने वह भी प्रकट सब सुन लिए॥

    कर्तव्य अब जो हो हमारा दीजिए सम्मति हमें,

    रण के बिना कोई नहीं अब दीखती है गति हमें।

    जब शांति करना चाहते वे लोग राज्य बिना दिए,

    कैसे कहें फिर हम कि वे प्रस्तुत नहीं रण के लिए॥

    जिसके सहायक आप हैं, हम युद्ध से डरते नहीं,

    क्षत्रिय समर में काल से भी भय कभी करते नहीं।

    पर भरत-वंश-विनाश की चिंता हमें दु:ख दे रही,

    बस बात बारंबार मन में एक आती है यही॥

    हैं दुष्ट, पर कौरव हमारे बंधु हैं, परिवार

    अतएव दोषी भी क्षमा के पात्र बारंबार

    यह सोच कर ही हम उनका चाहते संहार,

    पर देखते हैं दैव को स्वीकार ये विचार॥

    जो ग्राम केवल पाँच ही देते हमें वे प्रेम से,

    संतुष्ट थे हम, राज्य सारा भोगते वे क्षेम से।

    ये हाथ उनके रक्त से रँगना हमको इष्ट था।

    संबंध हमसे और उनसे सब प्रकार घनिष्ट था॥”

    सुनकर युधिष्ठिर के वचन भगवान यों कहने लगे—

    मानों गरजते हुए नीरद भूमि में रहने लगे।

    “है कौरवों के विषय में जो आपने निज मत कहा,

    स्वाभाविकी वह आपकी है सरलता दिखला रहा॥

    औदार्य-पूर्वक आप उनको चाहते करना क्षमा,

    आसन्न-मृत्यु परंतु उनमें वैर-भाव रहा समा।

    अतएव उनसे संधि की आशा समझनी व्यर्थ है,

    दुर्बुद्धियों को बोध देने में दैव समर्थ है॥

    उपदेश कोई यदपि उनके चित्त में समाएँगे,

    तो भी उन्हें हम संधि करने के लिए समझाएँगे।

    होगा उससे और कुछ तो बात क्या कम है यही,

    निर्दोषता जो जान लेगी आपकी सारी मही॥”

    यों कह युधिष्ठिर से वचन इच्छा समझ उनकी हिए,

    प्रस्तुत हुए हरि हस्तिनापुर गमन करने के लिए।

    इस संधि के प्रस्ताव से भीमादि व्यग्र हुए महा,

    पर धर्मराज-विरुद्ध धार्मिक वे कुछ बोले वहाँ॥

    तब सहन करने से सदा मन की तथा तन की व्यथा,

    जो क्षीण दीन निदाघ-निशि-सी हो रही थी सर्वथा।

    वह याज्ञसेनी द्रौपदी अवलोक दृष्टि सतृष्ण से,

    हिम-मलिन-विधु-सम वदन से बोली वचन श्रीकृष्ण से॥

    “है तत्त्वदर्शी जन जिन्हें सर्वज्ञ नित्य बखानते,

    हे तात! यद्यपि तुम सभी के चित्त की हो जानते।

    तो भी प्रकट कुछ कथन की जो धृष्टता मैं कर रही,

    मुझ पर विशेष कृपा तुम्हारी, हेतु है इसका यही॥

    जिस हृदय की दु:खाग्नि से जलती हुई भी निज हिए,

    जीवित किसी विध मैं रही शुभ समय की आशा किए।

    हा! हंत!! आज अजातरिपु ने दया रिपुओं पर दिखा,

    कर दी ज्वलित घृत डाल के ज्यों और भी उसकी शिखा॥

    सुन कर सुनने योग्य हा! इस संधि के प्रस्ताव को,

    वह चित्त मेरा हो रहा है प्राप्त जैसे भाव को।

    वर्णन कर सकती उसे मैं वज्रहृदया परवशा,

    हरि तुम्हीं एक हताश जन की जान सकते हो दशा॥

    केवल दया ही शत्रुओं पर नहीं दिखलाई गई,

    हा! आज भावी सृष्टि को दुर्नीति सिखलाई गई।

    चलते बड़े जन आप हैं संसार में जिस रीति से,

    करते उन्हीं का अनुकरण दृष्टांत-युत सब प्रीति से॥

    जो शत्रु से भी अधिक बहुविध दु:ख हमें देते रहे,

    वे क्रूर कौरव हा! हमीं से आज बंधु गए कहे।

    नीतिज्ञ गुरुओं ने भुला दी नीति यह कैसे सभी—

    “अपना अहित जो चाहता हो वह नहीं अपना कभी॥”

    जो ग्राम लेकर पाँच ही तुम संधि करने हो चले,

    औदार्य और दयालुता ही हेतु हों इसके भले।

    पर “डर गए पांडव” सदा ही यह कहेंगे जो अहो!

    निज हाथ लोगों के मुखों पर कौन रक्खेगा कहो?

    क्या कर सकेंगे सहन पांडव हाय! इस अपमान को,

    क्या सुन सकेंगे प्रकट वे निज घोर अपयश गान को।

    होता सदा है सज्जनों को मान प्यारा प्राण से,

    है यशोधनियों को अयश लगता कठोर कृपाण से॥

    देवेंद्र के भी विभव को संतत लजाते जो रहे

    हा! पाँच ग्रामों के वही हम आज भिक्षुक हो रहे।

    अब भी हमें जीवित कहे जो, सो अवश्य अजान है,

    हैं जानते यह तो सभी “दारिद्रय मरण-समान है”॥

    अथवा कथन कुछ व्यर्थ अब जब क्षमा उनको दी गई,

    केवल क्षमा ही नहीं उनसे बंधुता भी की गई।

    सो अब भले ही संधि अपने बंधुओं से कीजिए,

    पर एक बार विचार फिर भी कृत्य उनके लीजिए॥

    क्या-क्या जानें नीच निर्दय कौरवों ने है किया,

    था भोजनों में पांडवों को विष इन्होंने ही दिया।

    सो संधि करने के समय इस विषम विष की बात को,

    मुझ पर कृपा करके उचित है सोच लेना तात को॥

    है विदित जिसकी लपट से सुरलोक संतापित हुआ,

    होकर ज्वलित सहसा गगन का छोर था जिसने छुआ।

    उस प्रबल जतुगृह के अनल की बात भी मन से कहीं,

    हे तात! संधि विचार करते तुम भुला देना नहीं॥

    मृग-चर्म धारे पांडवों को देख वन में डोलते,

    तुमने कहे थे जो वचन पीयूष मानों घोलते।

    जो क्रोध उस बेला तुम्हें था कौरवों के प्रति हुआ,

    रखना स्मरण वह भी, तथा जो जल दृगों से था चुआ॥

    था सब जिन्होंने हर लिया छल से जुवे के खेल में,

    प्रस्तुत हुए किस भाँति पांडव कौरवों से मेल में?

    उस दिवस जो घटना घटी थी भूल क्या वे हैं गए,

    अथवा विचार विभिन्न उनके हो गए हैं अब नए?”

    फिर दुष्ट दु:शासन हुआ था तुष्ट जिनको खींच के,

    ले दाहिने कर में वही निज केश लोचन सींच के।

    रख कर हृदय पर वाम कर शर-विद्ध-हरिणी-सी हुई,

    बोली विकल तर द्रौपदी वाणी महा करुणामयी॥

    “करुणा-सदन! तुम कौरवों से संधि जब करने लगो,

    चिंता व्यथा सब पांडवों की शांत कर हरने लगो।

    हे तात! तब इन मलिन मेरे मुक्त केशों की कथा,

    है प्रार्थना, मत भूल जाना, याद रखना सर्वथा॥”

    कह कर वचन यह दु:ख से तब द्रौपदी रोने लगी,

    नेत्रांबुधारा-पात से कृश अंग निज धोने लगी।

    हो द्रवित, करके श्रवण उसकी प्रार्थना करुणा-भरी,

    देने लगे निज कर उठा कर सांत्वना उसको हरी॥

    “भद्रे! रुदन कर बंद हा! हा! शोक को मन से हटा,

    यह देख तेरी दु:ख-घटा जाता हृदय मेरा फटा।

    विश्वास मेरे कथन का जो हो तुझे मन में कभी,

    सच जाने तो दु:ख दूर होंगे शीघ्र ही तेरे सभी॥

    जिस भाँति गद्गद् कंठ से तू रो रही है हाल में

    रोती फिरेंगी कौरवों की नारियाँ कुछ काल में।

    लक्ष्मी-सहित रिपु-रहित पांडव शीघ्र ही हो जाएँगे,

    निज नीच कर्मों का उचित फल कुटिल कौरव पाएँगे॥”

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 113)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

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